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________________ [१४] निक्षेप करता है और जो अनुदयवाली मोह प्रकृतियाँ हैं उनका उदयावलिके बाहर निक्षेप करता है । इसी प्रकार अन्य करणोंके विषयमें भी जानना चाहिये। दूसरे उपशान्तकषाय गुणस्थानका काल समाप्त होनेपर इस जीवका पतन होता है। सो यहाँ ऐसा जानना चाहिये कि विशुद्धिवश यह जीव आरोहण करता है और संक्लेशवश उसका पतन होता है । इस प्रकार उपशान्तमोहसे गिरकर जब यह जीव सूक्ष्मसाम्परायमें प्रवेश करता है तब उसके प्रथम समयमें ही यह जीव अप्रत्याख्यान आदि तीन लोभोंकी प्रशस्त उपशामनाको समाप्तकर संज्वलन लोभकी उदयादि अवस्थित गुणश्रेणि करता है शेष दो लोभोंकी भी उदयावलि बाह्य अवस्थित गुणश्रेणि करता है जिनका काल संज्वलन लोभके कृष्टिवेदक कालसे एक आवलि अधिक कालप्रमाण होता है तथा आयु कर्मके बिना शेष कर्मोंकी सूक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिकरण और अपूर्वकरणके कालसे कुछ अधिक कालप्रमाण गुणश्रेणि रचना करता है। उतरनेवाले इस जीवके अप्रशस्त कर्मीका अनुभागबन्ध उत्तरोत्तर अनन्तगुणा बढ़ने लगता है और प्रशस्त कर्मोका अनुभागबन्ध उत्तरोत्तर घटने लगता है। इसी प्रकार बन्धयोग्य सभी कर्मोका स्थितिबन्ध यथाविधि बढ़ने लगता है । इतना ही नहीं, सूक्ष्म कृष्टिवेदनमें भी वृद्धि होने लगती है । उतरते समय अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करनेपर उच्छिष्टावलिमात्र निषेकोंको छोड़कर शेष सूक्ष्म कृष्टियोंका प्रथम समयमें ही स्पर्धकगत लोभरूप परिणमन हो जाता है तथा उच्छिष्टावलिमात्र निषेकोंका स्तिवुक संक्रमण द्वारा उदयमें आनेवाले स्पर्धकरूप निषेकोंमें निक्षेप होता रहता है। यहाँसे मोहके आनुपूर्वी संक्रमका नियम नहीं रहता सो यह कथन शक्तिकी अपेक्षा किया है। आगे लोभवेदक कालको समाप्तकर यह जीव क्रमसे माया, मान और क्रोधवेदक कालमें प्रवेश करता है। यहाँ और आगे जो-जो कार्य विशेष होते हैं उन्हें मलसे जान लेना चाहिये । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जब यह जीव क्रोधसंज्वलनके वेदनके प्रथम समयमें स्थित होता है तब ज्ञानावरणादि कर्मी के साथ बारह कषायोंका गलितशेष गुणश्रेणि निक्षेप होता है तथा तभी यह जीव अन्तरको धारता है। इसके बाद इस जीवके पुरुषवेदका उदय होते समय सात नोकषायोंका उपशमकरण नष्ट हो जाता है। यहाँ बारह कषाय और सात नोकषायोंकी ज्ञानावरणादि कर्मों के समान गुणश्रेणि होती है। आगे स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेके प्रथम समयमें मोहनीयकी २० प्रकृतियोंकी गुणश्रेणिरचना होती है । आगे नपुंसकवेदके अनुपशान्त होनेपर मोहनीयकी २१ प्रकृतियोंकी गुणश्रेणि रचना होती है। पहले चढ़नेवालेके छह आवलि काल जानेपर बँधनेवाली प्रकृतियोंके उदीरणाका नियम है यह बतला आये हैं । किन्तु उतरनेवालेके सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे ही यह नियम नहीं रहता । संसारी जीवोंके समान बँधनेवाले कर्मोंकी एक आवलिके बाद उदीरणा होने लगती है। इसी प्रकार चढ़ते समय जिन कर्मोका मात्र देशघाति बन्ध होने लगता है सो यथास्थान उसका अभाव होकर सर्वघाति बन्ध होने लगता है । तथा उतरनेवालेके यथास्थान असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणाका भी अभाव हो जाता है। इसी प्रकार चढ़नेवालेके जो स्थितिबन्धकी अपेक्षा कमकरण होनेका विधान कर आये हैं सो उसका भी अभाव हो जाता है। इसके बाद जब यह जीव अपूर्वकरणमें प्रवेश करता है तब उसके प्रथम समयमें ही अप्रशस्त उपशामना, निधत्ति और निकाचन ये तीनों करण उद्घाटित हो जाते हैं । अर्थात् चढ़ते समय अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करने के पूर्व जो कर्मपुञ्ज अप्रशस्त उपशामना आदिरूप थे वे पुनः उसरूप हो जाते हैं । इस विधिसे यह जीव क्रमसे अपूर्वकरणको पूरा कर अधःप्रवृत्तकरणमें प्रवेश करता है। यहाँ यह पुरानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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