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________________ १८२ लब्धिसार तदनन्तर विशुद्धिमें हानि-वृद्धिका निर्देश --- सं० चं०-तिस एकान्त वृद्धिकालते पीछे विशुद्धताकरि घटै वा बधै वा हानि वृद्धि विना जैसाका तैसा रहै किछु नियम नाहीं। ऐसे उपशमाए हैं तीन दर्शनमोह जानै ऐसा जीव बहुत बार प्रमत्त अप्रमत्तनिविर्षे उलटनिकरि प्राप्त हो है ॥ २१८ ।। अथ द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टरुपशमश्रण्यारोहणावसरं प्रदर्शयितुमिदमाह एवं पमत्तमियरपरावत्तिसहस्सयं तु कादूण । इगवीसमोहणीयं उवसमदिण अण्णपयडीसु' ॥ २१९ ।। एवं प्रमत्तमितरं परावृत्तिसहस्रकं तु कृत्वा। एकविंशमोहनीयं उपशमयति न अन्यप्रकृतीषु ॥ २१९ ॥ सं० टी०-एवं पूर्वोक्तप्रकारेणायं द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिर्वा क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्वा प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि कृत्वा द्वादशकषायनवनोकषायभेदभिन्नमेकविंशतिप्रकृतिकं चारित्रमोहनीयमेवोपशमयितुमुपक्रमते नान्यकर्मप्रकृतीस्तासामुपशमकरणाभावात् ॥ २१९ ॥ तदनन्तर उपशमश्रोणिमें होनेवाले मुख्य कार्यका निर्देश सं० चं०-ऐसे अप्रमत्तत प्रमत्तविषै प्रमत्तते अप्रमत्तविर्षे हजारों बार पलटनिकरि अनन्तानुबन्धीचतुष्क विना अवशेष इकईस चारित्रमोहकी प्रकृतिके उपशमावनेका उद्यम करै है । अन्य प्रकृतिनिका उपशम होता नाहीं जातै तिनकै उपशम करना ही है ।। २१९ ॥ विशेष-उक्त विधिसे यह जीव द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर विशुद्धि और संक्लेशवश हजारों बार प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानोंमें परावर्तन कर और क्रमशः सातिशय अप्रमत्तसंयत होकर उपशमश्रेणि पर आरोहण कर चारित्रमोहनीयकी अप्रत्याख्यातावरण चतुष्क आदि २१ प्रकृतियोंका उपशमन करता है। यहाँ अन्य प्रकृतियोंका उपशमन नहीं होता, क्योंकि मोहनीयकर्मके अतिरिक्त अन्य कर्मोंको तीन करणपूर्वक उपशमविधिका निषेध है। उसमें यह जीव सर्वप्रथम अधःकरणको प्राप्त करता है। इसके अन्तमें कार्यबिशेष आदिको सूचित करनेवाली चार गाथाओंमें निर्दिष्ट सभी बातोंका खुलासा जयधवला पृ० २१४-२२२ में किया ही है सो उसे वहाँसे जान लेना चाहिये । यहाँ मुख्यतया उपशमश्रेणिमें होनेवाले उपयोग और वेदके विषयके विषयमें विचार करना है। जयधवलामें उपयोगके प्रसंगसे दो उपदेशोंका निर्देश किया है । प्रथम उपदेशके अनुसार श्रुतज्ञानोपयोगी जीव उपशमश्रेणिपर चढ़ता है-यह बतलाया है तथा दूसरे उपदेशके अनुसार श्र तज्ञान मतिज्ञान तथा चक्षु-अचक्षुदर्शनोपयोगवाला जीव उपशमश्रेणि पर चढता है। किन्तु यह विवक्षाभेदसे कहा गया है। जैसे आगममें सामायिक और छेदोपस्थापना संयमको मिला कर कथन किया जाता है वैसे ही इन दोनों ज्ञानोंके विषयमें भी जानना चाहिये। इतना ही नहीं, आगममें श्रुतज्ञानपूर्वक श्रु तज्ञानके होने पर पिछले श्र तज्ञानको उपचारसे मतिज्ञान भी स्वीकार किया गया है। इसलिये जिन आचार्योंने श्रु तज्ञानके अतिरिक्त मतिज्ञान तथा चक्षु-अचक्षु दर्शनोपयोगसे उपशम श्रेणिपर आरोहण करना स्वीकार किया है, सम्भवतः उन्होंने इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर उक्त निर्देश किया होगा। इस सम्बन्धमें पहले हम जयधवलाके १. तदो कसाए उवसामेहूँ कच्चे अधापवत्तकरणस्स परिणामं परिणमइ । वही. पृ० २१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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