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________________ कौन जीव कितने कालमें देशचारित्रको प्राप्त करता है १४१ संयमासंयमलब्धि और संयमलब्धिके प्रथम समयसे लेकर अन्तमुहर्तकाल तक प्रति समय अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे विशुद्धिरूप परिणामोंमें वृद्धि होती रहती है। दूसरा अर्थ यह है कि 'वड्डावड्डी' पदका पदच्छेद करने पर वड्डि और अवड्डि ऐसे दो पद निष्पन्न होते हैं । जिसमें आये हुए ‘अवड्डि' पदसे यह अर्थ फलित होता है कि जब जीव संयमलब्धि और संयमासंयम लब्धिसे गिरनेके सन्मुख होता है तब संक्लेशरूप परिणामोंके कारण प्रति समय विशुद्धिरूप परिणामोंकी अनन्तगुणी हानि होने लगती है । वड्डी शब्दका अर्थ पूर्ववत् है । इस सम्बन्धमें अन्य स्पष्टीकरण यथावसर आगे करेंगे। तत्र मिथ्यादृष्टर्देशसंयमलब्धौ सामग्रीमाह अंतोमुहुत्तकाले देसवदी होहिदि त्ति मिच्छो हु । सोसरणो' सुझंतो करणं पि करेदि सगजोग्गं ।। १६९ ।। अन्तर्मुहूर्तकाले देशव्रती भविष्यतीति मिथ्यो हि। सापसरणः शुध्यन् करणान्यपि करोति स्वकयोग्यम ॥१६९॥ सं० टी०-यस्मात्परमन्तमुहूर्तकाल नीत्वा मिथ्यादृष्टिदेशव्रती भविष्यति तस्मिन् काले सुविशुद्धमिथ्यादृष्टिः प्रतिसमय मनन्तगुणविशुद्धया वर्धमानः आयुर्वजितकर्मणां बन्धसत्तयोरन्तःकोटीकोटिमात्रावशेषकरणेन स्थित्यपसरणमशुभकर्मणामनन्तकभागमात्रावशेषकरणेनानुभागापसरणं च कुर्वन स्वयोग्यं करणी कुरुते ॥ १६९ ॥ मिथ्यादृष्टिके देशसंयमकी प्राप्तिके पूर्व जो सामग्री होती है उसका स्पष्टीकरण सं० चं०-अंतर्मुहूर्त काल पी, जो देशव्रती होसी सो मिथ्यादृष्टि जीव समय समय अनंतगुणी विशुद्धताकरि वर्धमान होती आयु विना सात कर्मनिका बंध वा सत्व अंतःकोटाकोटीमात्र अवशेष करनेकरि तो स्थिति बंधापसरणकौं करता अपने योग्य अर अशुभ कर्मनिका अनुभाग अनंतवां भागमात्र करनेकरि अनुभागबंधापसरणकौं करता अपने करण योग्य परिणामकों करै है ॥ १६९ ॥ विशेष-जो मिथ्यादृष्टि जीव अन्तमुहर्तकालके भीतर संयमासंयमको प्राप्त करता है वह जैसे अशुभकर्मों के अनुभागबन्धको द्विस्थानीय करता है वैसे ही उन कर्मो के सत्त्वको भी द्विस्थानीय करता है इतना यहाँ अशुभकर्मो के विषयमें विशेष समझना चाहिए। तत्र मिथ्यादृष्टेर्देशसंयमलब्धौ सम्यक्त्वविभागेन करणपरिणामविभागप्रदर्शनार्थमिदमाह मिच्छो देसचरित्तं उवसमसम्मेण गिण्हमाणो हु । सम्मत्तुप्पत्तिं वा तिकरणचरिमम्हि गेण्हदि हु ।। १७० ।। १. संजमासंजममंतोमुहुत्तण लभिहिदि त्ति तदो प्पहुडि सम्बो जीवो आउगवज्जाणं ट्ठिदिबंध ठिदिसंतकम्मं च अतोकोडाकोडीए करेदि, सुभाणं कम्माणमणुभागबंधमणुभागसंतकम्मं च चउट्ठाणियं करेदि, असुभाणं कम्माणमणुभागबंधमणुभागसंतकम्मं च दुट्ठाणियं करेदि । कसाय० चू०, जयध० पु० १३, पृ० १२४ । २. उवसमसम्मत्तेण सह संजमासंजमं पडिवज्जमाणस्स तिण्हं पि करणाणं संभवो अत्थि । जयध०, पु० १३, पृ० ११३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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