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________________ चारित्रलब्धि- अधिकारः ।। ३ ।। तस्मिन् देशचारित्रलब्धिः अथ दर्शनमोहक्षपणाविधानप्ररूपणानन्तरं देशसकलसंयम लब्धिप्ररूपणार्थमिदं सूत्रमाहदुबिहा चरिद्धी देसे सयले य देसचारितं । मिच्छो अयदो सयलं ते वि व देसोय लब्भेई ॥ १६८ ॥ द्विधा चारित्रलब्धिः देशे सकले च देशचारित्रम् । मिथ्योऽयतः सकलं तावपि च देशश्च लभते ॥ १६८ ॥ सं० टी० – चारित्रस्य लब्धिः प्राप्तिः चारित्रमेव वा लब्धिः, सा द्विविधा देशेन साकल्येन च । तत्र देशचारित्रं मिथ्यादृष्टिरसंयतसम्यग्दृष्टिश्च लभते । सकलचारित्रं तौ च देशसंयतश्च लभन्ते ।। १६८ ॥ अब देशसंयमलब्धि और सकलसंयमलब्धिका कथन करनेके लिए उक्त सूत्रका अर्थ कहते हैं सं० चं० -- चारित्रकी लब्धि कहिए प्राप्ति सो चारित्र देश सकल भेदतें दोय प्रकार है । तहां देश चारित्रकौं मिथ्यादृष्टी वा असंयतसम्यग्दृष्टि प्राप्त हो है । अर सकलचारित्रकौं ते दोऊ अर देशसंयत प्राप्त हो है ।। १६८ । विशेष- चारित्रलब्धिके दो भेद हैं- देशचारित्र और सकलचारित्र । इनका क्रमसे संयमासंयमलब्धि और संयमलब्धि भी नाम है । कषायप्राभृतमें इन दोनोंका निरूपण करनेवाली मात्र एक गाथा' आई है । गाथाका भाव यह है - संयमासंयमलब्धि और चारित्रलब्धि इनकी उत्तरोत्तर वृद्धि अथवा वृद्धि हानि तथा पूर्वबद्ध कर्मोकी उपशामना किस प्रकार होती है यह जानने योग्य है । इस गाथाकी व्याख्या करते हुए जयधवला में संयमासंयमलब्धिका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है - देशचारित्रका घात करनेवाले अप्रत्याख्यानावरण कषायोंके उदयाभाव से हिंसादि दोषोंके एकदेश विरतिस्वरूप अणुव्रतोंको प्राप्त होनेवाले जीवके जो विशुद्धिरूप परिणाम होता है उसे देशचारित्र या संयमासंयमलब्धि कहते हैं । अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशसंयमकी प्रतिबन्धक है, अतः देशसंयमके कालमें उसकी अनुदयलक्षण उपशामना रहती है । प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन और नौ नोकषायोंका उदय होने पर भी वहाँ उनका उदय सर्वघाति न होनेसे उनका उदय रहते हुए भो देशसंयमके होने में कोई बाधा नहीं आती । कषायप्राभृतकी उक्त गाथाके तोसरे पादमें 'वड्डावड्डी' पद आया है । जयधवला में उसके दो अर्थ किये हैं । प्रथम अर्थ है कि Jain Education International १. का संजमासंजमलद्धी णाम हिंसादिदोसाणमें कदेस विरहलक्खणाणि अणुव्वयाणि देसचारितघादीणमपच्चक्खण कसायाणमुदयाभावेण पडिवज्जमाणस्स जीवस्स जो विसुद्धपरिणामो सो संजमा जमलद्ध भण्णदे । जयध० पु० १३, पृ० १०७ । २. लद्धी संजमासंजमस्स वड्ढी तहा चरित्तस्स । वड्ढावड्ढी उवसामणा य तह पुव्वबद्धाणं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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