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________________ अपकर्षित द्रव्यकी निक्षेपविधिका विचार . १०५ भागकौं उदयादि अवस्थित गुणश्रेणि आयामविष देना सो उदयावलीका प्रथम समयतें लगाय पूर्वं जो गलितावशेष गुणश्रेणि आयामका प्रारंभ कोया था तामैं व्यतीत भएं पीछे जो अवशेष गुणश्रेणि आयाम रह्या ताका अंत पर्यत अर एक समय उपरितन स्थितिका तिनिविर्षे देना। भावार्थ-इहाँतें पहलैं तो उदयावलीत बाह्य गुणश्रेणि आयाम था अब इहाँतै लगाय उदय रूप वर्तमान समयतें लगाय ही गुणश्रेण्यायाम भया तातें याकौं उदयादि कहिए है। अर पूर्व तौ समय व्यतीत होतें गुणश्रेणि आयाम घटता होता जाता था अब एक समय व्यतीत होतें उपरितन स्थितिका एक समय मिलाय गुणश्रेणि आयामका प्रमाण समय व्यतीत होतें भी जेताका तेता रहै । तातें अवस्थित कहिए, तातें याका नाम उदयादि अवस्थिति गुणश्रेण्यायाम है ताके निषेकनिविर्षे सो द्रव्य असंख्यातगुणा क्रम लीएं दीजिए है अँसैं तिन दोऊ फालिनिके द्रव्यकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ एक भाग तौ गुणश्रेणिविर्षे दीया ॥ १२८ ॥ विशेष-जिस समय मिश्रप्रकृतिका उच्छिष्टावलिको छोड़कर अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिका सम्यक्त्वप्रकृतिको आठ वर्षप्रमाण स्थितिमें पतन होता है उसी समय सम्यक्त्वप्रकृतिको आठ वर्षप्रमाण सत्त्वस्थितिको छोड़कर उपरितन सत्त्वस्थितिस्वरूप अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका सम्यक्त्वकी आठ वर्षप्रमाण सत्त्वस्थितिमें पतन होता है। उसमें भी इन दोनों फालियोंके द्रव्यमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे असंख्यातगुणे ऐसे पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उसे पहलेके समान गुणश्रेणि करके गुणसंक्रमविधिसे निक्षिप्त करना चाहिए। अर्थात् उदय स्थितिमें सबसे स्तोक द्रव्यको निक्षिप्त करे । उससे उपरितन स्थितिमें असंख्यातगुणे द्रव्यको निक्षिप्त करे । इस विधिसे गणश्रेणि शीर्षके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे द्रव्यको निक्षिप्त करे। इन दोनों फालियोंमें संचित द्रव्य डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धप्रमाण है, इसे टीकामें स्पष्ट किया ही है । गुणश्रेणिसे ऊपरके निषेकोंमें अवशिष्ट द्रव्यके निक्षेपकी विधिका निर्देश सेसं विसेसहीणं अडवस्सुवरिमठिदीए संछुद्धे । चरमाउलिं व सरिसी रयणा संजायदे एत्तो॥ १२९ ।। शेषं विशेषहीनमष्टवर्षस्योपरिमस्थित्यां संक्षुब्धे । चरमावलिरिव सदृशी रचना संजायतेऽतः ॥ १२९ ॥ ___ सं० टी०-सेसं विसेसहीणमित्यादि गुणश्रेण्यायामांतर्मुहूर्तकालन्यूनाष्टवर्षमात्रोपरितनस्थितौ 'अद्धाणेण सवधणे खंडिदे इत्यादि' विधानेनानीतं प्रथमनिषेकद्रव्यं स । १२-१६ १- इदमुपरितन ७ । ख १७ । व ८-१६ व ८ २ १. पुणो सेसबहुभागदव्वस्संतोमुहुत्तूणट्ठवस्सेहिं खंडियेयखंडस्स णिरुद्धगोपुच्छायारेण णिक्खेवदंसणादो। तम्हा एत्तो पहुडि सम्मत्तस्स उदयादि अवट्टिदगुणसे ढिणिक्खेवो होइ त्ति घेत्तव्यो। एवं गुणसेढिसीसयादो एवं णिक्खित्ते अणंतरोवरिमाए वि एक्किस्से द्विदीए असंखेज्जगणं पदेसग्गं णिक्खवियण उवरि सम्वत्थ अणंतरोवणिधाए विसेसहीणं चेव देदि । जाव अट्रवस्साणं चरिमसमओ त्ति । जयध० भा० १३, पृ०६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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