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________________ मिश्रद्विककी अन्तिम फालिसम्बन्धी कथन १०३ सं० टी० - अयं दर्शन मोहक्षपक आत्मा यदि गुणितकर्माश: उत्कृष्टयोगादिसामग्रीवशेन उत्कृष्टकर्मसंचयवान् भवति तदा तयोर्द्रव्यमुत्कृष्टं भवतीति संबंध, अन्यथा यद्युत्कृष्टसंचवान्न भवति तदा तयोर्द्रव्यमनुत्कृष्टं भवति । मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्योरुच्छिष्टावल्यां समयद्विके शेषे सति जघन्य स्थितिर्भवति । उदयावलिचरम निषेको भवतीत्यर्थः ॥ . स० चं० - यह दर्शनमोहका क्षय करनेवाला जीव जो गुणितकर्मांश कहिए उत्कृष्ट कर्मसंचय युक्त होइ तो ताके तिनि दोऊ प्रकृतिनिका द्रव्य तिस समयविषै उत्कृष्ट हो है अर जो वह जीव उत्कृष्ट कर्मका संचययुक्त न होइ तो ताकेँ तिनिका द्रव्य तहां अनुत्कृष्ट हो है । बहुरि मिथ्यात्व अर मिश्रमोहनीकी स्थिति उच्छिष्टावलीमात्र रही सो क्रमतें एक एक समय विषै एक एक निषेक गलि तहां दोय समय अवशेष रहें जघन्य स्थिति हो है । भावार्थ यहु-तहां उदयावलीका अंत निषेकमात्र स्थितिसत्व हो है ।। १२७ ।। विशेष - जो निरन्तर गुणितकर्माशिक विधिसे कर्मस्थितिके काल तक मिथ्यात्वका बन्ध कर सातवें नरकमें दूसरी बार यथाविधि उत्पन्न होकर भवस्थितिके अन्तिम समय में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय कर क्रमसे तिर्यञ्च पर्यायमें उत्पन्न हुआ और वहाँसे यथाविधि अतिशीघ्र कर्मभूमिज मनुष्य होकर क्रमसे वेदकसम्यक्त्वपूर्वक दर्शन मोहनीयकी क्षपणा करने लगा उसके क्रम से मिथ्यात्वके अन्तिम काण्डकको अन्तिम फालिके सम्यग्मिथ्यात्वमें और सम्यग्मिथ्यात्व के अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम होनेपर सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका यथाक्रम उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है । शेष कथन सुगम है | मिश्र की अन्तिम फालिके कितने द्रव्यका गुणश्रेणिमें किस क्रमसे निक्षेप होता है इसका निर्देश मिस्सदुगचरिमफाली किंचूणदिवड्ढसमयपबद्धपमा । गुणसेटिं करिय तदो असंखभागेण पुव्वं व' ॥ १२८ ॥ मिश्रद्विकचरमफालि: foचिन समय प्रबद्धप्रमा । गुण कृत्वा ततः असंख्य भागेन पूर्व वा ॥ १२८ ॥ सं० टी० - मिश्रसम्यक्त्वप्रकृत्योश्चरमफालिद्वयद्रव्यं किंचिन्न्यूनद्वयर्धगुणहानिमात्र समयप्रबद्धप्रमाणं वा । तथाहि सम्यग्मिथ्यात्वद्रव्यमिदं स । १२ - अस्मिन् मिथ्यात्वद्रव्ये स । १२ - गु १ संख्यात७ । ख । १७ । गु ७ । ख । १७ । गु a 9 ^ १a १. तक्कालभाविसगचरिमफालिदव्वेण सह सम्मामिच्छत्तचरिमफालि घेत्तून अट्ठवस्समेत्तसम्मत्तट्ठिदिसंतकम्मस्सुवरि णिक्खिमाणो उदये थोवं पदेसग्गं देदि । से काले असंखेज्जगुणं देदि । एवं जावगुणेसेढिसीसयं ताव असंखेज्जगुणं देदि । तदो उवरिमाणंतराए द्विदीए असंखेज्जगुणं चेव देदि । किं कारणं ? सम्मामिच्छत्तचरिमफालिदव्वं किंचूणदिव ढगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धमेत्त मोकडुणभागहारादो असंखेज्जगुणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडेण तत्थेयखंडमेत्तमेव दव्वं गुणसेढीए णिक्खिय । जयध० भा० १३, पृ० ६४ | ध० पु० ६, पृ० २५९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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