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________________ लब्धिसार पमप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे नीचे अत्यन्त दूर तक अपकर्षित की गई होनेसे और अत्यन्त कृश-अल्प होनेसे यह स्थिति दूरापकृष्टि कहलाती है। अथवा इसका स्थितिकाण्डक अत्यन्त दूर तक अपकर्षित किया जाता है, इसलिये इसका नाम दूरापकृष्टि है । यहाँ से लेकर असंख्यात बहुभागोंको ग्रहण कर स्थितिकाण्डकघात किया जाता है, इसलिये भी यह दूरापकृष्टि कहलाती है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह दूरापकृष्टि एक विकल्पवाली है या अनेक विकल्पवाली है ? इस विषयमें कितने ही आचार्य कहते हैं कि वह एक विकल्पवाली है, क्योंकि वह पल्योपमके भेदरहित सबसे जघन्य संख्यातवें भागप्रमाण है, और वह निर्विकल्प पल्योपमका संख्यातवाँ भाग, पल्योपमको जघन्य परीतासंख्यातसे भाजित कर वहाँ जो भाग प्राप्त हो उसमें एक मिलाने पर जितना प्रमाण हो तत्प्रमाण है, क्योंकि इसमेंसे एक भी स्थितिविशेषकी हानि होनेपर पल्योपमक असंख्यातवें भागप्रमाण विकल्पको उत्पत्ति होती है। किन्तु वीरसेनस्वामीका निर्णय है कि वह अनेक विकल्पवाली है। इसका विशेष खुलासा जयधवला भाग १३, पृ० ४६-४७ में किया गया है। पल्लस्स संखभागं तस्स पमाणं तदो असंखेज्जं । भागपमाणे खंडे संखेज्जसहस्सगेसु तीदेसु ॥ १२१ ॥ सम्मस्स असंखाणं समयपबद्धाणुदीरणा होदि । तत्तो उवरिं तु पुणो बहुखंडे मिच्छउच्छिठें ॥ १२२ ॥ पल्यस्य संख्यभागं तस्य प्रमाणं ततः असंख्येयं । भागप्रमाणे खंडे संख्येयसहस्रकेषु अतीतेषु ॥ १२१ ॥ सम्यक्त्वस्यासंख्यानां समयप्रबद्धानामुदीरणा भवति । तत उपरि तु पुनः बहुखंडे मिथ्योच्छिष्टम् ॥ १२२ ॥ सं० टी०-तस्य दूरापकृष्टिस्थितिसत्त्वस्य प्रमाणं पल्यसंख्यातकभागमानं भवति प ततो दरापक्रष्टिस्थितिसत्त्वात्पल्यासंख्यातबहभागमात्रायामेष स्थितिकांडेष संख्यातसहस्रष्वतीतेष सम्यक्त्वप्रकृतेरपकृष्टद्रव्यस्य असंख्यातसमयप्रबद्धमात्रमुदीरणाद्रव्यमुदयावल्यां निक्षिप्यते । तथाहिसम्यक्त्वप्रकृतिद्रव्यमिदं स । १२- अस्मादपकृष्ट पल्यासंख्यातभागेन खण्डयित्वा तद्बहभागद्रव्यं ७।ख । १७ । गु उपरितनस्थितौ देयं स । १२ - शेषकभागं पुनः पल्यासंख्यातभागेन भक्त्वा तद्बहभागद्रव्यं गुणश्रेण्यां ७ । ख । १७ । गु ओ प १. एवं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागिगेसु बहुएसु टिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु तदो सम्मत्तस्स असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा । तदो बहुसु ट्ठिदिखंडएसु गदेसु मिच्छत्तस्स आवलियबाहिरं सव्वमागाइदं । क० चू०, जयध० भा० १३, पृ० ४८ । ध० पु० ६, पृ० २५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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