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________________ दूरावष्टिकथन पतितेषु त्रींद्रियस्थितिबंधसमं पंचाशत्सागरोपमप्रमितं स्थितिसत्त्वं भवति । ततो बहुषु स्थितिखण्डेषु गतेषु दींद्रिय स्थितिबन्धसमं पंचविशतिसागरोपममात्रं स्थितिसत्त्वं भवति । ततो बहुषु स्थितिखंडेषु पतितेषु एकेंद्रिय - स्थितिबंधसमं एक सागरोपमप्रमितं स्थितिसत्त्वं भवति । ततो बहुषु स्थितिखंडेषु पतितॆषु पल्यमात्रं स्थितिसत्त्वं भवति । इदं द्वितीयं पर्व ।। ११९ ।। वृत्तिकरण के काल में किये जानेवाले कार्यविशेषों को कहते हैं स० चं० - दर्शनमोहकी पृथक्त्व लक्ष सागरप्रमाण स्थिति प्रथम समयविर्षे संभव है त पर संख्यात हजार कांडक भएं असंज्ञीका बंध समान हजार सागर स्थितिसत्व रहै है । ताके पीछें बहुत २ स्थितिकांडक भएं क्रमतें चौंद्री तेंद्री केंद्री एकेंद्रीका स्थितिबंध के समान सौ सागर पचास सागर पचीस सागर एक सागर स्थितिसत्व हो है । पीछें बहुत स्थितिखंड भएं पल्यप्रमाण स्थितिसत्व हो है । मैं हु दूसरा पर्व भया ।। ११९ ।। पल्लट्ठदिदो उचरिं संखेज्ज सहरसमेत ठिदिखंडे | द्रावकिट्टिसण्णिदठिदिसतं होदि नियमेण ॥ १२० ॥ पत्यस्थितित उपर संख्येयसहस्र मात्र स्थितिखंड | दूरापकृष्टिसंज्ञितं स्थितिसत्त्वं भवति नियमेन ॥ १२० ॥ सं० टी० - तस्मात्पल्यमात्रस्थितिसत्त्वादुपर्युपरि पत्यसंख्यातबहुभागमात्रायामेषु संख्यातसहस्रस्थितिnishषु निपतितेषु दूरापकृष्टिसंज्ञं स्थितिसत्त्वं नियमेन भवति । का दूरापकृष्टिर्नामेति चेदुच्यते - पल्ये उत्कृष्टसंख्यातेन भक्ते यल्लब्धं तस्मादेकैकहान्या जघन्यपरिमितासंख्यातेन भक्ते पत्ये यल्लब्धं तस्मादेकोत्तरवृद्धा यावंतो विकल्पास्तावन्तो दूरापकृष्टिभेदा:, तेषु कश्चिदेव विकल्पो जिनदृष्टभावोऽस्मिन्नवसरे दूरापकृष्टिसंज्ञितो वेदितव्यः । इदं तृतीयं पर्व ॥ १२० ॥ ९७ स० चं० - तातें ऊपर पल्यकौं संख्यात्तका भाग दोएं तहां बहुभागमात्र आयाम धरें जैसे संख्यात हजार स्थितिखंड भएं दूरापकृष्टिनामा स्थितिसत्व नियमकरि हो है । पल्यकौं उत्कृष्ट संख्यातका भाग दीएं जो प्रमाण आवै तातें एक एक घटता क्रमकरि पल्यकौं जघन्य परीता - संख्यातका भाग दीएं जो प्रमाण आवै तहां पर्यंत दूरापकृष्टिके सर्व भेद जानने । तिनिविषै इहां कोई संभवता भेद जानना । यहु तीसरा पर्व भया ।। १२० ।। Jain Education International विशेष - दूरापकृष्टि किसे कहते हैं इस प्रश्नका समाधान करते हुए श्री जयधवला में बतलाया है कि पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे अत्यन्त दूर उतरकर सबसे जघन्य पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण जो स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उसकी दूरापकृष्टि संज्ञा है, क्योंकि पल्यो १. का दूरावकिट्टी णाम ? वुच्चदे—जत्तो ट्ठिदिसंत कमावसेसादो संखेज्जे भागे घेतूण ट्ठिदिखंडए घादिज्जमाणे घादिदसेस णियमा पलिदोनमस्स असंखेज्जदिभागपमाणं होण चिट्ठदि तं सव्वपच्छिमं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागपमाणं द्विदिसंतकम्मं दूरावकिट्टित्ति भण्णदे । जयध० भा० १३, पृ० ४५ । २. पलिदोवमे ओलुत्ते तदो पलिदोवमस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । तदो सेसस्स संखेज्जा भागा आगाइदा । एवं ट्ठिदिखंडयस हस्सेसु गदेसु दूरावकिट्टी पलिदोवमस्स संखेज्जे भागे द्विदिसंतकम्मे सेसे तदो सेसस्स असंखेज्जा भागा आगाइदा । क० चू० जयध० भा० १३ पृ० ४३-४४ । ⭑ १३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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