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________________ मोहनी की क्षपणाका निर्देश ९५ स्थितिसत्व संख्यातगुणा है । जातैं कोई जीव उपशमश्रेणि चढि तहां बहुत स्थितिखंडन करि तहां ऊपर पीछे शीघ्र ही दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारंभ करें है ताकें जघन्य स्थितिसत्व हो है । अन्य कोई जीव श्रेणी न चढघा होइ ताकेँ उत्कृष्ट स्थितिसत्व है । तहाँ जघन्य स्थितिसत्वका स्थितिकांडकायाम पल्यके संख्यातवे भागमात्र है । उत्कृष्ट स्थितिसत्वका पृथक्त्व सागरप्रमाण है । जातें स्थिति के अनुसारिस्थितिकांडक हो है । असैं संख्यात हजार स्थितिकांडक घातनिकरिअर तातें संख्यातगुणे अनुभागकांडक घातनिकरि अर समय समय असंख्यातगुणा द्रव्यकी गुणश्रेणीनिर्जरा करिअर गुणसंक्रम विधानकरि अपूर्वकरणके अंत समयकौं प्राप्त भया तहाँ कर्मनिका स्थिति - अनुभागसत्व प्रथम समय के तिस स्थितिसत्वतें संख्यातगुणा घाटि हो है । और भी दर्शनमोहका उपशम विधानविषै जो प्ररूपण कीया है सो इहां भी यथासंभव जानना ।। ११७ ॥ विशेष – दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवोंकी सत्त्वस्थिति में सदृशता और विसदृशता किस प्रकार सम्भव है इसका चूर्णिसूत्रोंके आधारसे श्री जयधवला भाग १३ पृ० २५ से ३० तक विशेष खुलासा किया गया है । यथा ( १ ) कोई एक जीव मध्यकाल में मिश्रगुणस्थानको प्राप्त कर उसके पूर्व और अनन्तर सब मिलाकर दो छयासठ सागरोपमकाल तक वेदकसम्यक्त्वके साथ रहनेके बाद दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है और दूसरा जीव दो छयासठ सागरोपमकाल तक परिभ्रमण किये बिना ही वेदकसम्यग्दर्शनपूर्वक दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है । इस प्रकार दर्शन मोहनी की क्षपणाका प्रारम्भ करनेवाले इन दोनों जीवोंकी सत्त्वस्थितिमें अपूर्वकरण के प्रथम समय में विसदृशता पाई जाती है, क्योंकि प्रथम जीवके स्थितिसत्कर्मसे दूसरे जीवका स्थितिसत्कर्म दो छयासठ सागरोपमकाल के समय प्रमाण निषेकोंकी अपेक्षा विशेष अधिक होता है । इस विधि से एक समय अधिक आदिसे लेकर दो छयासठ सागरोपमप्रमाणकाल के भीतर जितने सत्त्वस्थितिविकल्प सम्भव हों वे सब यहाँ ग्रहण कर लेने चाहिए । और इसीलिए अपूर्वकरण में यथासम्भव स्थितिकाण्डकाया ममें भी विसदृशता बन जाती है । ( २ ) अथवा एक जीव अन्तर्मुहूर्त पहले उपशमश्रेणि पर चढ़ा और दूसरा जीव अन्तर्मुहूर्त बाद उपशमश्रेणि पर चढ़ा । अनन्तर उन दोनोंने एक साथ दर्शनमोहनीयकी क्षपणा की । तो इस प्रकार भी अपूर्वकरण के प्रथम समय में उन दोनोंके स्थितिसत्कर्म में विषमता बन जानेसे स्थितिकाण्डकायाममें भी विसदृशता बन जाती है, क्योंकि प्रकृत में प्रथम जीवके स्थितिसत्कर्मसे दूसरे tant स्थति अन्तर्मुहूर्त निषेकप्रमाण अधिक देखा जाता है । यह तो एक जीवके स्थितिसत्कर्मसे दूसरे जीवका स्थितिसत्कर्म विशेष अधिक कैसे होता है। इसका विचार है । आगे एक जीवके स्थितिसत्कर्म से दूसरे जीवका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा कैसे होता है इसका खुलासा करते हैं ( ३ ) एक जीव कषायोंका उपशम करनेके बाद उतर कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है। और दूसरा जीव उपशमश्रेणि पर आरोहण न कर दर्शनमोहनीयको क्षपणा करता है तो अपूर्व - करणके प्रथम समय में इस दूसरे जीवके स्थितिसत्कर्मसे प्रथम जीवका स्थिति सत्कर्म संख्यातगुणा होता है, क्योंकि इस दूसरे जीवने उपशमश्रेणिपर चढ़कर स्थितिसत्कर्मका घात कर उसे संख्यातवें भागप्रमाण नहीं किया है। इसलिए इस दूसरे जीवका स्थितिकाण्डकायाम प्रथम जोवके स्थितिकाण्डकायाम से संख्यातगुणा होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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