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________________ उन पर्वोका विशेष खुलासा सं० टी०-असंज्ञिपंचेंद्रियश्चतुरिंद्रियस्त्रींद्रियो द्वींद्रियश्च विकल चतुष्क, तस्मिन्ने केंद्रिये च यथाक्रम सहस्रशतपंचाशत्पंचविंशत्येकसागरोपमप्रमितो मिथ्यात्वोत्कृष्टो स्थितिबंधो भवति । एवमतानुबंधिनां द्रव्यं स । १२- गणश्रेण्या अपकृष्टमधो निक्षिप्य स्थितिकांडकद्रव्यं प्रफ इ लब्ध कांश प्र ७। ख । १७ __ प का प२ का फस a१२ - इ कां 2 ल स । १२ - गुणसंक्रमभागहारेण भक्त्वा लब्धफाली: प्रतिसमयमसंख्येय७ । ख १७ ७ । ख । १७ । १ गुणाः द्वादशकषायनोकषायेषु संक्रमय्य अनिवृत्तिकरणचरमसमये चरमकांडकफालिद्रव्यमच्छिष्टावलिमात्रनिषेकवजितं विसंयोजयति । उच्छिष्टावलिद्रव्यं च प्रतिसमयमेकैकनिषेकरूपेणावलिकाले विसंयोज्यते ॥ ११६ ।। स० चं०-विकलचतुष्क कहिए असंज्ञी पंचेंद्री चौंद्री तेंद्री वेंद्री अर एकेंद्री इनिकै मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबंध क्रमतें हजार अर सौ अर पचास अर पचीस अर एक सागर प्रमाण हो है। इन समान स्थितिसत्त्व अनंतानुबंधोका हो हो है । सा कथन कीया ही है। बहुरि अनंतानुबधीका द्रव्य श्रेणिकरि जो नीचले निषेकनिविष प्राप्त कीया अर स्थितिकांडकरि घटाई हई स्थितिके निषेक अवशेष स्थितिके निषेकनिविर्षे प्राप्त कीए बहुरि गुणसंक्रमकरि तिस द्रव्यकौं गुणसंक्रमण भागहारका भाग दीएं जो प्रमाण तिस प्रमाणमात्र द्रव्यका समूहरूप प्रथम फालि है अर तातें समय समय प्रति असंख्यातगुणा द्रव्यरूप द्वितीयादि फालि है तिनकौं विसंयोजन करै औसैं अनिवृत्तिकरणका अंत समयविर्षे उच्छिष्टावलीमात्र निषेक रहित अंत कांडकका अंत पालिका द्रव्यकौं विसंयोजन करै । बहुरि उच्छिष्टावलीमात्र निषेकनिका द्रव्यकौं एक एक समयविर्षे एक एक निषेकनिकौं विसंयोजन करै है । इनिके परमाणू निकौं बारह कषाय नव नोकषायरूप परिणमाय अभाव करनेका नाम विसंयोजन है । औसैं अनंतानुबंधोके विसंयोजनका विधान कह्या ॥ ११६ ।। विशेष-अनिवत्तिकरणमें अनन्तानबन्धीचतष्कके स्थितिसत्त्वकी उत्तरोत्तर हानि होते हए अन्त में उच्छिष्टावलिप्रमाण स्थिति किस क्रमसे रह जाती है इसका स्पष्ट निर्देश तो मूलमें और उसको टीकामे किया ही है। यहाँ इतना विशेष जानना कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अन्तरकरण नहीं होता, क्योंकि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयको उपशमनाके समय तथा चारित्रमोहनीयको क्षपण।के समय ही अन्तरकरण क्रिया सम्भव है, अन्यत्र नहीं। अथ विसंयोजितानंतानुबंधिकषायचतुष्टयस्योत्तरकाल कर्तव्यमाह --- अंतोमुहुत्तकालं विस्समिये पुणो वि तिकरणं करिय । अणियट्टीए मिच्छं मिस्सं सम्म कमेण णासेइ ॥ ११७ ।। अंतर्मुहर्तकालं विश्रम्य पुनरपि त्रिकरणं कृत्वा । मिथ्यात्वं मिश्रं सम्यक्त्वं क्रमेण नाशयति ॥११७॥ सं० टी०-पूर्वोक्तक्रमेण विसंयोजितानुबंधिक्रोधणनमायालोभकषायो जीवोंऽतर्मुहूर्तकालं विश्रम्य क्रियांतरमकृत्वा स्वस्थानस्थितो भूत्वेत्यर्थः, पुनरपि त्रिकरणान् कृत्वा अनिवृत्तिकरणकाले मिथ्यात्वप्रकृति मिश्रप्रकृति सम्यक्त्वप्रकृति च क्रमेण नाशयति, वक्ष्यमाणप्रकारेण क्षपयतीत्यर्थः । तथाहि १. तदो अणंत्ताणुबंधी बिसंजोइदे अंतोमुत्तमधापवत्तो जादो। क० चू०, जयध० भा० १३ पृ० २०१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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