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________________ लब्धिसार मलक्षपृथक्त्व प्रमाण पाया जाता है। इससे ज्ञात होता है कि उक्त प्रकृतियों का यह स्थितिसत्त्व प्रथम स्थितिकाण्डsh पतनके पूर्व प्रथम समयसे लेकर उक्त काण्डकके पतनके अन्तिम समय तक पाया जाता है। इसको प्रकृतमें प्रथम पर्व कहा गया है। शेष कथन स्पष्ट ही है । आगे प्रथमादि तीन पर्वोंमें क्रमसे स्थितिकाण्डकायामका प्रमाण बतलाते हैंपल्लस्स संखभागो संखा भागा असंखगा भागा । ठिदिखंडा होंति कमे अणस्स पव्वादु पव्वोत्ति' ॥ १२४ ॥ पल्यस्य संख्यभाग: संख्या भागा असंख्यका भागाः । स्थितिखंडा भवंति क्रमेण अनंतस्य पर्वात् पर्वान्तं ॥ ११४ ॥ ९२ सं० टी० - अनंतानुबंधिनां स्थितिसत्त्वस्य प्रथमपर्वणः आरभ्य द्वितीयपर्व पर्यंतं पल्यसंख्या तकभागः स्थितिखंडायामो भवति । द्वितीयपर्वणः आरभ्य तृतीयपर्वपर्यंतं पल्यसंख्यातबहुभागमात्रः स्थितिखंडायामः । तृतीयपर्वणः आरभ्य चतुर्थपपर्वर्यं तं पल्या संख्यातबहुभागमात्रः स्थितिखंडायामः ।। ११४ ।। स० चं०-अनंतानुबंधीका स्थितिसत्त्वके पहले पर्वतैं दूसरे पर्वपर्यंत अर दूसरे तीसरे पर्यंत अर तीसरे चौथे पर्यंत जे स्थितिकांडक हो हैं तिनिका आयाम क्रमतें पल्यका संख्यातवां भाग अर पल्यका संख्यात बहुभाग अर पल्यका असंख्यात बहुभागमात्र है सो कथन कीया ही है ।। ११४ ।। आगे दो गाथाओं द्वारा उन्हीं पर्वोका क्रमसे खुलासा करते हुए उनमें विशेषताका निर्देश करते हैं— अणिट्टीसंखेज्जाभागेसु गदेसु अणगठिदिसत्तो । उदधिस्सं तत्तो वियले य समं तु पल्लादी ।। ११५ ।। अनिवृत्ति संख्यात भागेषु गतेषु अनंतगस्थितिसत्त्वं । उदधिसहस्रं ततो विकले च समं तु पत्यादि ॥ ११५ ॥ सं० टी० – अनिवृत्तिकरणकालस्य प्रथमसमयादारम्भ संख्यातबहुभागेषु गतेषु अनंतानुबंधिनां स्थितिसत्त्वं क्वचित्सागरोपमसहस्रं । ततो विकलत्रयैकेंद्रियस्थितिबंधसमं । ततः पत्यादि भवति । आदिशब्दात् दूरापकृष्टिरुच्छिष्टावलिश्च गृह्यते प्रतिपर्व संख्यातसहस्रस्थितिखंडवशात् तत्स्थितिहानिसंभवात् ।। ११५ ।। सं० चं – अनिवृत्तिकरणके कालकौं संख्यातका भाग दीजिए तहां बहुभाग द्रव्य व्यतीत भएं एक भाग अवशेष रहैं अनंतानुबंधीका स्थितिसत्व कहीं हजार सागरमात्र, पीछे विकलेंद्रीका बंध समान, पीछें पल्य अर आदि शब्दतें दूरापकृष्टि अर आवली मात्र हो है ।। ११५ ।। Jain Education International उवहिसहस्सं तु सयं पण्णं पणवीस मेक्कयं चैव । त्रियलचउक्के एगे मिच्छुक्कस्सट्ठिदी होदि ।। ११६ ॥ उदधिसहस्रं तु शतं पंचाशत् पंचविशतिरेकं चैव । विकलचतुष्के एकस्मिन् मिथ्योत्कृष्ट स्थितिर्भवति ॥ ११६ ॥ १. ध० पु० ६, पृ० २५१ - २५२ । जयध० भा० १३, पृ० २०० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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