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________________ लब्धिसार मनतानुबंधिविसंयोजको गुणश्रेणि करोति । गुणश्रेण्यायामः पूर्ववदेवापूर्वानिवृत्तिकरणकालद्वयात्साधिकोऽपि संयतगुणश्रेण्यायामात् संख्येयगुणहीनः समयं प्रति गलितावशेषश्च । अनुभागकांडकायामः पूर्वस्मादनंतगुणः । स्थितिकांडकायामश्च पूर्वस्मास्संख्येयगुणः, गुणसंक्रमद्रव्यं च पूर्वस्मादसंख्येयगुणं । गुणसंक्रमस्तु अनंतानुबंधिनामेव नान्येषां कर्मणां । एवं संख्यातसहस्रैः स्थितिखंड : स्थितिबंधैरनुभागखं डैश्चापूर्वकरणकालं परिसमाप्य तदनंतरसमये अनिवृत्तिकरणं प्रविश्यति ॥ ११२ ॥ ९० अब सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाका कथन करते हैं— स० चं०-दर्शनमोहक्षपणा के पहले तीन करण करि अनंतानुबंध क्रोध मान माया लोभनिके उदयावलीतें बाह्य जे सर्व निषेक तिनकौं विसंयोजन व रता अनिवृत्तिकरणका अंत समयविषै नियम विसंयोजन करे है, बारह कषाय नव नोकषायरूप परिणमावै है । सोइ कहिए है असंयत वा देशसंयत वा प्रमत्त वा अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सो पहिलें अघःकरण करै ताका विधान प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहणविषै कहया तैसें जानना । तहां समयसमय अनंतगुणी विशुद्धताकरि बघता ताकौं समाप्त करि अपूर्वकरण कौं प्राप्त होइ तहां गुणश्रेण गुणसंक्रमण स्थितिकांडकघात अनुभागकांडकघात ए च्यारि कार्य होइ तहां प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति संबंधी गुणश्रेणिका द्रव्यतें देशसंयतका अर तातैं सकलसंयतका अर तातें इस अनंतानुबंधी विसंयोजनका गुणश्रेणिके अर्थि अपकर्षण कीया द्रव्य क्रमतें असंख्यातगुणा है अर तिनके गुणश्रेणि आयामका प्रमाण क्रमतें संख्यातगुणा घाटि है । सो अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण के काल साधिक गलितावशेषरूप जानना । बहुरि इहां अनुभागकांडक - आयाम पूर्वतैं अनंतगुणा है । बहुरि स्थितिकांडक-आयाम पूर्वतैं संख्यातगुणा है । बहुरि गुणसंक्रमण द्रव्य है सो पूर्व तैं असंख्यातगुणा है । इहां गुणसंक्रमण अनंतानुबंधीनिका ही है औरनिका नाहीं है औसा जानना । असें संख्यात हूजार स्थितिखंड वा स्थितिबंध वा अनुभागखंडनिकरि अपूर्वकरणको समाप्तकरि अनिवृत्तिकरणकौं प्राप्त हो है ।। ११२ ।। विशेष - जो वेदकसम्यग्दृष्टि कर्मभूमिज मनुष्य केवली और श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनमोहनी की क्षपणाका प्रारम्भ करता है वह इससे पूर्व अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करता है । किन्तु यह चतुर्थादि गुणस्थानोंमें उदयवाली प्रकृति नहीं है, इसलिये उदयावलिको छोड़कर शेष समस्त सत्त्वकी बारह कषाय और नौ नोकषायरूपसे विसंयोजना करता है । तथा उदया में प्रविष्ट हुए द्रव्यका स्तिवुक संक्रम द्वारा उदयवाली प्रकृति में संक्रमण करता है । विशेष स्पष्टीकरण मूल संस्कृत व हिन्दी टीका में किया ही है । इतना और जानना चाहिए कि जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव नरक से निकल कर तीर्थंकर होते हैं वे स्वयं मुनिपद अंगीकार कर जिनपदसंज्ञा के अधिकारी हो जाते हैं, अतः वे किसी अन्य केवली या श्रुतकेवली के पादमूलमें उपस्थित हुए बिना स्वयं दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कर लेते हैं । अथानिवृत्तिकरणका क्रियमाणं कार्यविशेषमाह - अणिट्टीअाए अणस्स चत्तारि होंति पव्वाणि । सायरलक्ख पुधत्तं पल्लं दूरावकिट्टि उच्छिट्ठ' ॥ ११३ ॥ १. जयध. भा० १३, पृ० २०० । ध. पु० ६, पृ० २५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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