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________________ लब्धिसार सं० टी-गुणसंक्रमभागहारेण तन्मिथ्यात्वद्रव्यं अपवर्त्य विभज्य मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिरूपेण परिणममानं द्रव्यतोऽसंख्येयभागक्रमेण शक्तितोऽनुभागतोऽनंतभागक्रमेण च परिणमलि । तथाहि-- मिथ्यात्वद्रव्यमिदं स a १२-गुणसंक्रमभागहारेण भक्त्वा बहुभागमात्रद्रव्यं मिथ्यात्वप्रकृतिरूपेण ७ । ख । १७ तिष्ठति- स a १२ -- गु तदेकभागमात्रद्रव्यमिदं स । 2 । १२ - a अत्राधिकरूपं पृथक्स्थाप्यावशिष्टं ७ । ख । १७ । गु स। । १२-1a। ७ । ख । १७ । गु a ७ । ख । १७ । गु इदं सम्यगमिथ्यात्वप्रकृतिरूपेण परिणतं पृथकस्थापितैकरूपमिदं स।।१२ ।१ सम्यक्त्वप्रकृतिरूपेण परि ७ । ख । १७ । गु णतं । अतः कारणादेताः प्रकृतयो द्रव्यतोऽसंख्येयभाजितक्रमा इति सूत्रे सूचितं । अनुभागतः मिथ्यात्वद्रव्यानुभाग: व । ९ । ना संख्यातानुभागकाडकावशिष्टत्वात् । अस्यानंतकभागमात्रो मिश्रप्रकृत्यनुभागः व । ९ । ना असं ख ख ख्यातकभागमात्रः सम्यक्त्वप्रकृत्यनुभागः व ९ । ना इदमनुभागाल्पबहुत्वमपि सूत्रसूचितमेव ॥ ९० ॥ ख ख ख स० चं०-मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्वमोहनीरूपकरि तीन प्रकार हो है सो क्रमतै द्रव्य अपेक्षा असंख्यातवां भागमात्र अनुभाग अपेक्षा अनंतवां भागमात्र जानने । सोई कहिए है-मिथ्यात्वका परमाणुरूप जो द्रव्य ताकौं गुणसंक्रम भागहारका भाग देइ एक अधिक असंख्यातकरि गुणिए । इतना द्रव्य विना समस्त द्रव्य मिथ्यात्वरूप ही रह्या। अर गुणसंक्रम भागहारकरि भाजित मिथ्यात्व द्रव्यकों असंख्यात करि गुणिए इतना द्रव्य मिश्रमोहरूप परिणान्या । अर गुणसंक्रम भागहारकरि भाजित मिथ्यात्व द्रव्यकौं एक करि गुणिए इतना द्रव्य सम्यक्त्वमोहरूप परिणम्या तातै द्रव्य अपेक्षा असंख्यातवां भागका क्रम आया। बहुरि अनुभाग अपेक्षा संख्यात अनुभाग कांडकनिके घातकरि जो मिथ्यात्वका अनुभाग पूर्व अनुभागके अनंतवां भागमात्र अवशेष ताके अनंतवें भाग मिश्रमोहका अनुभाग है । बहुरि याके अनंतवें भागि सम्यक्त्वमोहका अनुभाग है असे अनुभाग अपेक्षा अनंतवां भागका क्रम आया ।। ९० ।। विशेष--प्रथमोपशम सम्यदृष्टि जीव उसके प्राप्त होनेके प्रथम समय में सत्तामें स्थित मिथ्यात्वके द्रव्यके तीन टुकड़े कर मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे जितने प्रदेशपुंजको सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको देता है, उससे संख्यातगुणा होन द्रव्य सम्यक् प्रकृतिको देता है । यहाँ उक्त दोनों प्रकृतियोंके द्रव्यको लानेके लिये गुणसंक्रम भागहारका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके गुणसंक्रम भागहारसे सम्यक् प्रकृतिका गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा है । इस प्रकार इस अल्पबहुत्व विधिसे अन्तर्मुहूर्त कालतक मिथ्यात्वके द्रव्यसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृतिको पूरता है । इतनी विशेषता है कि प्रथम समयमें इन दोनों प्रकृतियोंको जितना द्रव्य दिया जाता है, द्वितीयादि समयोंमें उनसे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यको देता है। इस प्रकार यह क्रम गुणसंक्रमके अन्तर्मुहूर्त काल तक चालू रहता है। अनुभागकी अपेक्षा प्रथम समयमें मिथ्यात्वका जितना अनुभाग होता है उसका अनन्तवाँ भागप्रमाण सम्याग्मिथ्यात्वको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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