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________________ अन्तरायामके प्राप्त होनेपर मिथ्यात्वके तीन भागोंका निर्देश ७१ सं० टी०-अंतरायामप्रथमसमये प्राप्ते सति दर्शनमोहस्यानंतानुबंधिचतुष्टयस्यापि प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानां निरवशेषोपशमनादौपशमिक तत्त्वार्थश्रद्धानरूपसम्यग्दर्शनं प्रतिपद्यमानो जीवः प्रथमोपशमसम्यग्दष्टिनामा भवति । स तत्रांतरायामप्रथमसमये द्वितीयस्थितौ स्थितं मिथ्यात्वप्रकृतिद्रव्यं स्थित्यनुभागकांडकघातं विना अपवर्त्य गुणसंक्रमभागहारेण भक्त्वा त्रिधा करोति मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिरूपेण परिणमयतीत्यर्थः ।।८९॥ अब प्रथमोशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके कालका और उसमें होनेवाले कार्यविशेषका कथन करते हैं स० चं०-औसैं अनिवृत्तिकरण काल समाप्त भएं ताके अनंतरि अंतरायामका प्रथम समयकौं प्राप्त होते दर्शनमोह अर अनंतानुबंधीचतुष्क इनिके प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभागनिका समस्तपनै उदय होने अयोग्यरूप उपशम होने” औपशमिक तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनकौं पाइ जीव औपशमिकसम्यग्दृष्टी हो है। तहां प्रथम समयविर्षे द्वितीय स्थितिविौं तिष्ठता मिथ्यात्वरूप द्रव्यकौं स्थितिकांडक अनुभागकांडकका घात विना गुणसंक्रमणका भाग देइ तीन प्रकार परिणमावै है ।। ८९ ।। विशेष-प्रथम स्थितिको समाप्त कर इस जीवके अन्तरायाममें प्रवेश करने पर दर्शनमोहनीयकी उपशम संज्ञा हो जाती है । करण परिणामोंके द्वारा निःशक्त किये गये दर्शनमोहनीयके उदयरूप पर्यायके बिना अवस्थित रहने का नाम उपशम है । यहाँ सर्वोपशम सम्भव नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहनीयका उपशम हो जाने पर भी उसका संक्रमण और अपकर्षण पाया जाता है। अतः यहाँसे दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाले जीवकी उपशम सम्यग्दृष्टि संज्ञा हो जाती है । यहींसे लेकर यह जीव मिथ्यात्व प्रकृतिको तीन भागोंमें विभक्त करता है। प्रथम भागका नाम वही रहता है । दूसरे और तीसरे भागको क्रमसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृतिमिथ्यात्व कहते हैं। अनन्तानुबन्धी कर्मका उदय प्रारम्भके दो गुणस्थानोंमें ही होता है ऐसा एकान्त नियम है. अतः इस गुणस्थान में अनुदय रहनेसे उसके द्रव्यको भी उदयमें नहीं दिया जा सकता, इसलिये प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें उसका उपशम स्वीकार किया गया है। अनन्तानुबन्धीका अन्तरकरण उपशम नहीं होता। यहाँ संस्कृत टीकामें दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा निरवशेष अर्थात् सब प्रकारसे उपशम कहा है सो इसका यही तात्पर्य है कि इन सातों प्रकृतियोंके प्रकृति आदि चारों प्रकृतमें उदयके अयोग्य रहते हैं । संक्रमण और अपकर्षण होने में कोई बाधा नहीं, क्योंकि यहीं मिथ्यात्व प्रकृति तोन भागोंमें विभक्त होती है तथा अनन्तानुबन्धीका अपनी सजातीय प्रकृतिरूपसे संक्रमण हो सकता है तथा अनुदयरूप प्रकृति होनेसे उसका उदयावलिके बाहर उपरितन निषेक तक अपकर्षण भी हो सकता है । स्थिति और अनुभागको अपेक्षा मिथ्यात्वके द्रव्यका तीनरूप विभाग किस प्रकार होता है इसका निर्देश मिच्छत्तमिस्ससम्मसरूवेण य तत्तिधा य दव्वादो। सत्तीदो य असंखाणंतेण य होति भजियकमा ॥ ९० ॥ मिथ्यात्वमिश्रसम्यत्वरूपेण च तत्त्रिधा च द्रव्यतः। शक्तितश्च असंख्यानंतेन च भवंति भजितक्रमाः ॥९०॥ १. पढमसमयउवसंतदंसणमोहणीओ मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्ते बहुगं पदेसग्गं देदि । सम्मत्ते असंखेज्जगुणहीणं देदि । क० चू०, जयध० भा० १२, पृ० २८२ । मिच्छत्ताणुभागादो सम्मामिच्छत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो, तत्तो सम्मत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो त्ति पाहुडसुत्ते णिद्दिठ्ठत्तादो । ध० पु० ६, पृ० २३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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