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________________ ७० लब्धिसार कर्मनिकी गुणश्रेणी होय ही है। तहाँ मिथ्यात्वकी उदयावलीवि निक्षेपण करनेरूप केवल उदीरणा ही पाइए है सो कहिए है समय अधिक द्वितोयावलोके निषेकनिके द्रव्यकों असंख्यात लोकका भाग दीएँ जो प्रमाण आवै तितने द्रव्यकौं उदयावलोके निषेकनिविर्षे अंतके समय घाटि आवलीके दोय तीसरा भागमात्र निषेक अतिस्थापन करि नीचेके एक समय अधिक आवलीके त्रिभागमात्र निषेकनिविधैं निक्षेपण कर है। असैं समय समय प्रति उदीरणा पाइए है। द्वितीय स्थितिके निषेकनिके द्रव्यकौं अपकर्षण करि प्रथम स्थितिके नियेकनिविष प्राप्त करना ताका नाम आगाल है। अर प्रथम स्थिति निषकनिके द्रव्यकौं उत्कर्षण करि द्वितीय स्थितिके निषेकनिविष प्राप्त करना ताका नाम प्रत्यागाल है। बहुरि तिस प्रथम स्थिति विर्ष एक प्रत्यावली ही अवशेष रहैं उदोरणा भी न हो है । तिस प्रत्यावलीके निषेकनिका समय समय प्रति अधोगलन ही है । एक एक समय व्यतीत होते एक एक समय निर्जरै है बहुरि उपशमविधान प्रथम स्थितिका अंत पर्यंत है। तहाँ दर्शनमोहके द्रव्यकौं गुणसंक्रम भागहारका भाग दीए प्रथम स्थितिका प्रथम समयविष उपशम करने योग्य जो प्रथम फालि ताका द्रव्य हो है तातें असंख्यातगुणा द्वितीय समयसम्बन्धो द्वितोय फालिका द्रव्य हो है सै क्रमतै एक घाटि प्रथम स्थितिका समयप्रमाण वार असंख्यातका गुणकार भएँ अंत फालिका द्रव्य हो है ।। ८८ ।। विशेष-प्रथम स्थितिके द्रव्यका उत्कर्षण कर द्वितीय स्थितिमें देना आगाल है और द्वितीय स्थितिके द्रव्यका अपकर्षण कर प्रथम स्थितिमें देना प्रत्यागाल है ये दोनों कार्य आवलि और प्रत्यावलिप्रमाण प्रथम स्थितिके शेष रहनेके पूर्व समय तक ही होते हैं । यहीं तक मिथ्यात्वका द्रव्यका गणश्रेणिनिक्षेप भी होता है। जब मिथ्यात्वको प्रथम स्थिति आवलि और प्रत्यावलिप्रमाण शेष: जाती है तब वहाँसे लेकर ये तीनों कार्य बन्द हो जाते हैं। मात्र अन्य कर्मोका गुणश्रेणिनिक्षेप होता रहता है। मिथ्यात्वको प्रथम स्थितिके आवलि और प्रत्यावलि प्रमाण शेष रहने पर उसके द्रव्यका गुणश्रेणिनिक्षेप न होनेका कारण यह है कि वहाँसे लेकर द्वितीयावलिके अपकर्षित द्रव्यका उदयावलिमें हो यथानियम निक्षेप होता है। इसलिए वहाँसे लेकर मिथ्यात्वके गुणश्रेणिनिक्षेपका भी निषेध किया है। अथ प्रथमोपशमसम्यक्त्वाद्यग्रहणकाल तत्कार्यविशेषं च प्रतिरूपयति अंतरपढमं पत्ते उपसमणामो हु तत्थ मिच्छत्तं । ठिदिरसखंडेण विणा उवट्ठाइदूण कुणदि तिधा ॥८॥ अंतरप्रथमं प्राप्ते उपशमनाम हि तत्र मिथ्यात्वम् । स्थितिरसखंडेन विना उपस्थापयित्वा करोति त्रिधा ॥८९॥ १. चरिमसमयमिच्छाइट्री से काले उवसंतदसणमोहणीओ। ताधे चेव तिणि कम्मंसा उप्पादिदा । क० च० । अणियट्रिकरणपरिणामेहिं पेलिज्जमाणस्स दंसणमोहणीयस्स जंतेण दलिज्जमाणकोहवरासिस्सेव तिण्हं भेदाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो। जयध० भा० १२, पृ० २८०-२८१ । ओहदेदूण मिच्छत्तं तिण्णि भागं करेदि सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं । षटखं० च० । ण च उवसमसम्मत्तकालभंतरे अणंताणुबंधीविसंजोयणकिरियाए विणा मिच्छत्तस्स ट्रिदिघादो वा अणुभागघादो व अस्थि, तधोवदेसाभावा । ध० पु०६,५०२३४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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