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________________ ६८ लब्धिसार निक्षेप करता है। किन्तु इसका विशेष खुलासा करते हुए श्रीधवलामें बतलाया है कि अन्तरके लिये ग्रहण किये गये प्रदेश पुंजका अन्तरायामके काल में बँधनेवाली मिथ्यात्व प्रकृतिमें अर्थात् आबाधाको छोड़कर उसकी द्वितीय स्थितिमें और अन्तरायामसे नीचेकी प्रथम स्थितिमें निक्षेपण करता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रकृतमें उस समय बँधनेवाली मिथ्यात्व प्रकृतिका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होकर भी प्रथम स्थिति और अन्तरायामसे बहुत अधिक होता है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि दर्शनमोहनीयके यह उपशमनका कथन अनादि मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा किया जा रहा है । यदि सादि मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाला हो तो वह इन दोनों प्रकृतियोंका अन्तर करते समय एक आवलिमात्र स्थितिसे मिथ्यात्वके अन्तरके समान अन्तर करता है। शेष सब कथन टीकासे जान लेना चाहिए। अथान्तरकरणसमाप्त्यनन्तरसमयकर्तव्यं प्रतिपादयति अंतरकदपढमादो पडिसमयमसंखगुणिदमुघसमदि । गुणसंकमेण दंसणमोहणिगं जाव पढमठिदी' ॥ ८७ ॥ अन्तरकृतप्रथमतः प्रतिसनयमसंख्यगुणितमुपशाम्यति । गुणसंक्रमेण दर्शनमाहनीयं यावत् प्रथमस्थितिः ॥८७॥ सं० टी०-एवमकस्थितिकांडकोत्करणकालेनांतरकरणं निष्ठाप्यांतरकृतो भवति । अन्तरं कृतं यस्मिन येन वासौ अंतरकृतः, अंतरकरणकालचरमसमयस्तस्यानंतरसमयः प्रथमस्थितिप्रथम समयः तत आरभ्य यावत्प्रथमस्थितिचरमसमयस्तावत्प्रतिसमयमसंख्येयगुणितक्रमण द्वितीयस्थितिस्थिततद्दर्शनमोहनीयद्रव्यं गुणसंक्रमभागहारेण भक्त्वा लब्धफालीरुपशमयति । यद्यप्यधःप्रवृत्त करणप्रथमसमयादारभ्यायं दर्शनमोहस्योपशमक एव तथापि तत्प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानामस्मिन्नवसरे निरवशेषतः उपशमक इत्युच्यते ॥ ८७ ।। अब अन्तकरणविधिके हो जानेके अनन्तर समयसे होनेवाले कर्तव्यका निर्देश करते हैं स० चं०-सैं एक स्थितिकांडकोत्करण काल समान कालकर कीया है अंतर जाने जैसा अन्तरकृत भया तिस कालके अनंतरवर्ती जो समय सो प्रथम स्थितिका प्रथम समय है तातें लगाय ताहीका अंत समय पर्यंत समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लीएं जे अंतरायामके उपरिवर्ती निषेक तिनरूप जो द्वितीय स्थिति तीहिविर्षे तिष्ठता जो दर्शनमोह ताके द्रव्यकौं पोठविर्षे उक्तप्रमाण जो गुणसंक्रमण भागहार ताका भाग दोएं जो प्रमाण आया तितने द्रव्यका समूहरूप जे फालि तिनकौं उपशमावै है। उदय आदि होनेकौं अयोग्य करना सो उपशम करना जानना । यद्यपि अधःकरण ही तैं यह जीव दर्शनमोहका उपशमक ही है तथापि तिस दर्शनमोहके प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेशनिका निरवशेषपनैं इहां उपशमक कहिए है ।। ८७ ॥ विशेष-यहाँ अन्तरकरण विधिके बाद जो उपशमन क्रिया होती है उसका निर्देश किया गया है। चूणिसूत्रकारने यहाँसे लेकर इसे उपशामक कहा है सो इसका स्पष्टीकरण करते हुए श्री १. तदो पहुडि उवसामगो त्ति भण्णइ । क० चू० । जइ वि एसो पुव्वं पि अधापवत्तकरणपढमसमयप्पहडि उवसामगो चेव तो वि एत्तो पाए विसेसदो चेव उवसामगो होइ त्ति भणिदं होइ।''अणियदिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु संखेज्जदिभागसेसे अंतरं काढूण तदो दंसणमोहणीयस्स पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसाणमुवसामगो होइ त्ति परूवणावलंबणादो । जयध० भा० १२ पृ० २७६ । ध० पु० ६, पृ० २३२-२३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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