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________________ लब्धिसार पूर्वापकृष्टद्रव्यादसंख्येयगुणं द्रव्यमपकर्षति सिंचति च, पूर्वोक्तविधानेन उदयावल्यां गणण्यायामे उपरितनस्थितौ च तत्तद्रव्यं निक्षिपति । इत्यनेन प्रकारेणायुजितानां सप्तप्रकृतीनां द्रव्यस्य मिथ्यात्वद्रव्यवदेव गुणश्रेणिकरणं त्रिद्रव्यनिक्षेपविधानं ज्ञातव्यं ।। ७४ ॥ स० च-गुणश्रेणि करनेकौं द्वितीयादिक अंतपर्यंत समयनिविर्षे समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लीएं द्रव्यकों अपकर्षण करै है। बहुरि सिंचति कहिए पूर्वोक्त प्रकार उदयावली आदिविर्षे ताका निक्षेपण करै है। असैं मिथ्यात्ववत् आयु विना सात कर्मनिका गुणश्रेणिविधान समय समय प्रति हो है सो जानना ।। ७४ ।। अथ गुणसंक्रमविधानार्थमाह पडिसमयमसंखगुणं दव्बं संकमदि अप्पसत्थाणं । बंधुज्झियपयडीणं बंधंतसजादिपयडीसु ॥ ७५ । प्रतिसमयमसंख्यगुणं द्रव्यं संक्रामति अप्रशस्तानां । बन्धोज्झितप्रकृतीनां बध्यमानस्वजातिप्रकृतिषु ॥ ७५ । सं० टी०-गुणसेढी गुणसंक्रम इति पूर्वमुद्दिष्टो गुणसंक्रमः अपूर्वकरणप्रथमसमये नास्ति तथापि स्वयोग्यावसरे भविष्यतस्तस्य स्वरूपं पूर्वोद्देशानुसारेणास्मिन प्रकरण कथ्यते । तद्यथा-अप्रशस्तानां बंधोज्झितप्रकृतीनां द्रव्यं प्रतिसमयमसंख्येयगुणं बध्यमानस्वजातीयप्रकृतिषु संक्रामति । पूर्वस्वरूपं त्यक्त्वान्यस्वरूपं गृह्णातीत्यर्थः ॥ ७५ ॥ आगे गुणसंक्रमणकास्वरूप कहिए है स० चं-गुणसंक्रमण है सो अपूर्वकरणके पहले समयवि न हो है। अपने योग्य कालविर्षे हो है तथापि याका स्वरूप इहां कहिए जिनका बंध न पाइए औसी जे अप्रशस्त प्रकृति तिनिका द्रव्य है सो समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लीए जिनका बंध पाइए औसी जे स्वजाति प्रकृति तिनिविर्षे संक्रमण करै है अपने स्वरूपकौं छोडि तद्रूप परिणमै है ।। ७५ ।।। विशेष-औपशमिक सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर विध्यात संक्रमणके प्राप्त होनेके पूर्व समय तक गणसंक्रमण द्वारा मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वरूपसे संक्रमित करता है । इस विषयका विशेष विचार आगे किया ही गया है। यहाँ ७५ वीं गाथामें किन प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण होता है, मात्र इतना सामान्य निर्देश किया गया है। तथा अन्य किन प्रकृतियोंका किस किस अवस्थामें गुणसंक्रमण होता है इसका निर्देश आगे ७६ वीं गाथामें किया गया है। एवंविहसंकमणं पढमकसायाण मिच्छमिस्साणं । संजोजणखवणाए इदरेसिं उभयसेढिम्मि ।। ७६ ॥ एवं विधं संक्रमणं प्रथमकषायाणां मिथ्यात्व-मिश्रयोः । संयोजनक्षपणयोरितरेषामुभयणौ ॥७६ ॥ सं० टी०-एवंविधं प्रतिसमयमसंख्येयगणं संक्रमणं प्रथमकपायाणामनंतानबंधिनां विसंयोजने वर्तते । मिथ्यात्वमिश्रप्रकृत्योः क्षपणायां वर्तते । इतरासां प्रकृतीनामुभयश्रेण्यामुपशमकश्रेण्यां क्षपकण्यां च वर्तते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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