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नाभि नेमि द्विसंधान काव्य हेमविजय कृत ऋषभ शतक, रामचन्द्र सूरि कृत भरत बाहबलि महाकाव्य, आदि अनेक ग्रन्थ भगवान ऋषभदेव के विषय में वर्णन करते हैं। इन ग्रन्थों में भगवान ऋषभ सम्बन्धि प्रचर सामग्री हमें मिलती है। दिगम्बर जैन साहित्य--
जैन धर्म की मुख्य शाखाएँ दो हैं । एक श्वेताम्बर एवं दूसरी दिगम्बर । श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में भगवान ऋषभदेव के चरित्र विषयक मान्यताओं में कहीं कहीं अन्तर दृष्टिगोचर होता है । जिसका सामान्य उल्लेख यथा स्थान कथावस्तु में बताया है । तीर्थंकर विषयक मान्यताओं में दिगम्बर परम्परा के दो प्राचीन मुख्य ग्रन्थ आधार भूत माने जाते हैं--एक तिलोयपण्णत्ति, और दूसरा जिनसेनाचार्यकृत महापुराण । महापुराण के पश्चात अनेक दिगम्बराचार्यों ने तीर्थंकर चरित्र लिखे हैं किन्तु सब का आधार भूत ग्रन्थ महापुराण ही रहा है । भगवान ऋषभ देव के विषय में महापुराणकार ने विषद वर्णन किया है।
प्रस्तुत युगादि जिनदेव चरित्र आगम नियुक्ति एवं आवश्यक चूर्णि में वर्णित ऋषभ चरित्र का ही अनुकरण करता है। प्रन्थकार--
युगादि जिनदेव चरित्र के रचनाकार आचार्य श्री वर्द्धमान सुरि है । इनके जीवन पर प्रकाश डालने वाली कोई सामग्री हमें उपलब्ध नहीं हई । केवल मनोरमा कहा की एवं आदिनाथ चरित्र की प्रशक्ति में ग्रन्थ रचना संवत, रचना स्थल, गुरु परम्परा एवं इस ग्रन्थ के प्रथमादर्श के लेखक का नाम मिलता है। वह इस प्रकार है।
चन्द्रकुलीन अप्रतिबद्ध बिहारी आचार्य श्री वर्द्धमानसूरि हए । उनके दो अद्वितीय शिष्य थे एक का नाम था जिनेश्वरसूरि और दूसरे का बुद्धिसागर मूरि । दोनों सहोदर भ्राता थे और साक्षात बहस्पति के अवतार थे । इनके द्वारा रचित व्याकरण, छंद, निघण्टु, तर्क, नाट्य कथा आदि प्रबन्ध ग्रन्थों को बुद्धिमान लोग बड़ी प्रसन्नता से पढ़ते पढ़ाते हैं । उनके शिष्य थे अभयदेव सूरि । इन्होंने नौ अंग पर टीका की रचनाकार जैन शासन की अमूल्य सेवा की है इन्हीं के पट्टधर शिष्य प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता वर्द्धमानसूरि हैं । इन्हीं के गुरु भ्राता विमलगणी ने इस ग्रन्थ की रचना में सहायता की । वि. सं. ११६० में खंभात में महाराजा जयसिंह के राज्यकाल में चैत्र शुक्ला विजया दसमी के दिन पुण्य नक्षत्र के योग में ग्यारह हजार श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ को पूर्ण किया । इस ग्रन्थ का प्रथमादर्श पार्श्वगणि ने लिखा ।
भगवान आदिनाथ के सम्पूर्ण जीवन का आलेखन करने वाले इस विशाल ग्रन्थ की रचना कर आचार्य श्री बर्द्धमान सूरि ने प्राकृत साहित्य की अनपम सेवा की है।
इसके अतिरिक्त इन्हीं आचार्य श्री ने वि. सं. ११४० धंधका में १५००० श्लोक प्रमाण प्राकृत में मनोरमा कहा की रचना की । साथ ही संस्कृत में वि. सं. ११७२ में धर्मरत्न करंड टीका नामक ९५०० श्लोक प्रमाण ग्रन्थ की रचना की । इसका संशोधन मुनि अशोकचन्द्र मुनि धनेश्वर, मुनि पार्श्वचन्द्र एवं मुनि नेमिचन्द्र ने किया । इस ग्रन्थ को पं. हीरालाल हंसराज ने सं. १९९५ में पत्राकार में प्रकाशित किया है।
इस ग्रन्थ का अपभ्रंश भाग भाषा विद डॉ. ह. च. भायानी सा. ने देखा और उसे शद्ध किया । मैं उनकी इस महती कृपा दृष्टि के लिए चिर ऋणी हूँ ।
अहमदाबाद रूपेन्द्रकुमार पगारिया
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