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________________ पांचवां अंगसूत्र सूत्र भगवती--व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र है । इसमें अनेक विषयों पर चर्चा हई है । किन्तु इस विशालकाय ग्रन्थ में भगवान ऋषभदेव विषयक कुछ भी वर्णन नहीं मिलता है । सर्व प्रथम इस ग्रन्थ का आरम्भ 'नमो बंभीए लिविए' से ही प्रारम्भ होता है । साथ ही प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का पंच महाव्रत युक्त तथा प्रतिक्रमण सहित धर्म का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त प्रज्ञापणा सूत्र में ब्राह्मी की अठारह लिपियाँ, एवं उत्तराध्ययन में भरत चक्रवर्ती का राज्य छोड़कर प्रवजित होने का विधान, तथा भगवान ऋषभदेव के पांच महाव्रत धर्म का उल्लेख मिलता है । कल्पसूत्र में भगवान ऋषभदेव के पंच कल्याणक उनके माता-पिता, जन्म और उनके पाँच नाम और दीक्षा ग्रहण तथा चतुष्टि लंचन का वर्णन उपलब्ध होता है । साथ ही दीक्षा के एक हजार वर्ष के पश्चात् केवल्य प्राप्ति का उल्लेख है। जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में भगवान ऋषभदेव का संक्षिप्त परिचय मिलता है वह इस प्रकार है-- भगवान् ऋषभदेव का च्यवन जन्म, दीक्षा, केवल तथा परिनिर्वाण उत्तराषाढा नक्षत्र में हुआ। नाभी कुलकर की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से प्रथम राजा प्रथम जिण प्रथम केवली एवं प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव (आर्हत् कौशलिक) का जन्म आषाढ वदी अष्टमी के दिन हुआ। दिशाकुमारिकाओं ने तथा देवेन्द्रों ने भगवान का जन्मोत्सव किया। भगवान ऋषभदेव बीसलाख पूर्व तक कुमारावस्था में एवं ६३ लाख पूर्व राज्य अवस्था में रहे। उन्होंने राजकाल में पुरुषों की ७२ कला स्त्रियों की ६४ कला का एवं १०० शिल्पों एवं तीन कर्म (असि मसि एवं कृषि) का उपदेश दिया। सौ पत्रों को राज्य देकर ग्रीष्मऋतु में चैत्रबदि नौमी के दिन पिछले प्रहर में समस्त रिद्धि सम्पदा का त्याग कर सुदर्शन शिबिका में चढकर चारहजार पुरुषों के साथ सिद्धार्थवन में दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा के समय आपने चतुमुष्टि लुंचन किया । दीक्षा के पश्चात् भगवान ने एक वर्ष तक वस्त्र धारण किया । बाद में वे अचेलक हो गये। एक वर्ष तक उत्कृष्ट साधनामय जीवन व्यतीत करने के पश्चात पुरिमताल नगर के बाहर सगडमुख उद्यान में न्यग्रोध वृक्ष के नीचे उत्कृष्ट ध्यान की स्थिति में फाल्गण वदि ग्यारस के दिन पूर्वाह के समय घणघाति कर्म को क्षयकर केवलज्ञान और दर्शन को प्राप्त किया। आपने षट्काय की रक्षा एवं पाँच महाव्रत रूपी धर्म का उपदेश दिया । उत्सर्पिणी काल के नौ सागरोपम कोडाकोडी के बीतने पर अपना तीर्थ प्रवर्तन किया । भगवान के ८४ गण थे । ऋषभसेनादि ८४ हजार साध एवं ब्राह्मी सुन्दरी प्रमुख तीन लाख साध्वियाँ थी । श्रेयांसादि तीन लाख पाँच हजार श्रावक थे एवं सुभद्रा आदि पांच लाख चौपन हजार श्रमणोंपासिकाए थी । चार हजार सात सौ पचास चौदह पूर्वधरों की एवं नौ हजार अवधिज्ञानियों की सम्पदा थी । २० हजार जिन बीस हजार छ सौ वैक्रिय लब्धिधारी १२६५० विपुलमति १२६५० वादि २२९०० अनुतरोपपातिकों की संपदा थी । २०००० हजार श्रमण सिद्ध हए । ४०००० आर्यिकाएँ सिद्ध हई ६०००० अन्तेवासी सिद्ध हुए। अर्हत् ऋषभ की दो अंतकृत भूमि थी एक युगान्तर भूमि दूसरी पर्यायान्तकर भूमि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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