SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जुगाइजिणिदपरिव बाहुबलि की यह अवस्था देखकर भ. ऋषभदेव ने उन्हें समझाने के लिए साध्वी ब्राह्मी और सुन्दरी को भेजा । दोनों साध्वियों ने लताओं से अच्छादित बाहुबलि को खोज निकाला और पास में आकर बोलीं--भाई ! तुम हाथी से नीचे उतरो । हाथी पर बैठे केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। यह सुनकर बाहुबलि सोचने लगे--मैं हाथी पर कहाँ बैठा हूँ, साध्वियां असत्य नहीं बोलतीं । अरे समझा, ये ठीक कहती हैं । मैं अभिमान रूपी हाथी पर आरूढ़ हैं। इस विचार के साथ सरल भाव से ज्योंही बाहुबलि ने अपने छोटे भाईयों को नमन करने के लिए पैर उठाये कि उन्हें केवलज्ञान हो गया । केवली बनकर वे भगवान के समवसरण में गये और केवली परिषद में बैठ गये। भरत चक्रवर्ती न्याय पूर्वक साम्राज्य का पालन करने लगे। एक दिन वे वस्त्रालंकार से विभूषित हो अपने आदर्श भवन में बैठे हुए थे । शीश महल में उनका सौन्दर्य शतमुखी होकर प्रतिबिम्बित हो रहा था । अचानक उनके एक हाथ की ऊँगली में से अँगूठी नीचे गिर पड़ी । दूसरी अँगुलियों की अपेक्षा वह असुन्दर मालूम होने लगी । भरत चक्री को विचार आया कि क्या इन बाहरी आभूषणों से ही मेरी शोभा है? उन्होंने दूसरी ऊँगलियों की अंगुठियों को भी उतार दिये । यहाँ तक कि एक एक आभूषणों के साथ समस्त वस्त्रालंकार भी उतार दिये । आभूषण और वस्त्र रहित सारा शरीर अत्यन्त असुन्दर लगने लगा । अपने ही असुन्दर शरीर को देखकर वे सोचने लगे--आभूषणों से ही शरीर सुन्दर लगता है। इसका असली रूप तो कुछ और ही है । यह शरीर अनित्य एवं नश्वर है इस प्रकार अनित्य भावना करते हुए भरत महाराज क्षपक श्रेणी में आरूढ़ हो गये । चढ़ते हुए परिणामों की प्रबलता से उन्होंने घाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त किया । देवों ने भरत केवली को साधु का वेष दिया । गृहस्थ वेष में केवलज्ञान प्राप्त करने वाले आप प्रथम चक्रवर्ती हुए । भरत के साथ एक हजार राजाओं ने भी दीक्षा ली । अन्त में ८४ लाख पूर्व का आयुष्य समाप्त कर भरत केवली ने मोक्ष प्राप्त किया। भगवान ऋषभदेव के चरित्र का विकास-- हम भगवान ऋषभदेव के चरित्र के विकास क्रम को चार विभागों में विभक्त कर सकते हैं:-- प्रथम विभाग--आगम द्वितीय विभाग--नियुक्ति भाष्य एवं चणि साहित्य तृतीय विभाग--अन्यान्य ग्रन्थ । चतुर्थ विभाग में दिगम्बरीय परम्परा । भगवान ऋषभदेव के चरित्र का चार विभागों में विभक्त कर निम्न घटनाओं पर विचार करेंगे । १. भगवान ऋषभदेव के पूर्वभव २. कुलकर एवं कुलकर व्यवस्था ३. जन्म तथा वंश की स्थापना ४. जन्मोत्सव ५. ऋषभदेव का विवाह ६. ऋषभदेव का राज्याभिषेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy