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________________ प्रदेश में पहुँचे। वहां किरातों के साथ भरत का भयानक युद्ध हुआ। किरात हार गये। वहाँ से भरत क्षुद्र हिमवन्त की पर्वत माला में पहुँचे और वहां के अधिपति शुद्र हिमवन्त गिरिकुमार को जीत लिया। वहां से वे ऋषभ कूट पर्वत पर पहुँचे वहाँ पहुँचकर काकणि रत्न से पर्वत की भित्ति पर अपना नाम अंकित किया। उसके बाद दिग्विजय करते हुए भरत राजा ने वैताढ्य पर्वत की विद्याधर श्रेणियों पर आक्रमण कर दिया। उस समय कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि वहां के राजा थे नमि विनमि ने हारकर भरत की शरण ली। विनमि ने अपनी दोहती सुभद्रा का विवाह महाराज भरत के साथ किया, सुभद्रा अत्यन्त रूपवती थी वह भरत की स्त्री रत्न के रूप में प्रसिद्ध हुई । २३" इसके बाद भरत ने गंगा देवी को जीता। वहां से खण्ड प्रपात गुहा पहुँचकर वहाँ के अधिपति कृतमाल को जीता। गुफा में काकणी रत्न से मण्डल बनाये। इसके पश्चात् गंगा के पश्चिम प्रदेश को जीतते हुए वे विनीता राजधानी लौट आये और विशाल वैभव के साथ राज्य सुख का अनुभव करने लगे । भरत ने अपने ९८ भाईयों के राज्य छीन लिये । भ. ऋषभदेव का उपदेश सुनकर ९८ भाईयों ने प्रवज्या ग्रहण की। अट्ठानुओं भाईयों के दीक्षित हो जाने से उनका मार्ग बहुत कुछ तो सरल बन चुका था फिर भी एक बाधा थी कि महाबली बाहुबलि को कैसे जीता जाय ? जब तक बाहुबलि को आज्ञानुवर्ती नहीं बना लिया जाता तब तक एकछत्र राज्य की स्थापना नहीं हो सकती थी अतः उन्होंने अपने छोटे भाई बाहुबलि को यह सन्देश पहुँचाया कि वह भरत की अधिनता स्वीकार कर ले। भरत की सूचना बाहुबलि के पास पहुँची । बाहुबलि बड़े शक्तिशाली और वीर राजा थे । उन्हें भरत के आधीन रहना पसन्द नहीं था । वे दूत द्वारा सन्देश पाकर बड़े क्रुद्ध हुए और दूत को अपमानित कर कहा--" पूज्य पिताजी ने जिस प्रकार भरत को अयोध्या का राज्य दिया है उसी प्रकार मुझे तक्षशिला का राज्य दिया है । जो राज्य मुझे पिताजी से प्राप्त हुआ है उसे छीनने का अधिकार भरत को नहीं है जाओ तुम अपने स्वामी भरत से कह दो कि बाहुबल भरत के शासन में रहने के लिए तैयार नहीं हैं। दूत की बात सुनकर भरत ने विशाल सेना के साथ बाहुबलि पर चढ़ाई कर दी। दोनों की सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ । भरत और बाहुबलि ने दृष्टि युद्ध, वाक् युद्ध, मुष्टि युद्ध और दण्ड युद्ध कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया । अन्त में निराश भरत ने बाहुबलि का शिरच्छेदन के लिए चक्ररत्न से उन पर वार किया । बाहुबलि ने भरत को चक्ररत्न से वार करते देखा तो गर्व के साथ क्रुद्ध हो उछले और चक्र को पकड़ना चाहा पर उसी समय उन्हें विचार हुआ कि तुच्छ काम भोगों के लिए ऐसा करना योग्य नहीं । भाई प्रतिज्ञा भ्रष्ट हो गया है तो भी मुझे धर्म छोड़कर भ्रात वध का दुष्कर्म नहीं करना चाहिए । यह सोच उन्होंने अपने उठे हुए हाथ को अपने ही सिर पर डाला और बालों का लुंचन करके वे श्रमण बन गये। भ. ऋषभदेव की सेवा में जाने के बजाय वन में ही तप करने लगे। उनके मन का अभिमान नहीं गया। वे मन में सोचने लगे मेरे छोटे भाईयों ने भगवान के पास पहले ही से दीक्षा से रक्खी है। अभी मैं भगवान के पास जाऊँगा तो उन भाईयों को नमस्कार करना पड़ेगा, अतः मुझे केवली बनकर ही भगवान के समवसरण में पहुँचना चाहिए । यह सोच वे घने जंगल में ध्यान करने लगे । निर्जल और निराहार ध्यान करते हुए एक वर्ष बीत गया । सारे शरीर पर लताएँ छा गईं। पंछियों ने उनके शरीर पर अपने घौंसले बना डाले किन्तु अहंभाव लिये हुए तपस्वी बाहुबलि निश्चल ध्यान में लीन ही रहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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