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साथ ही समाज की सुव्यवस्था के लिए उन्होंने वर्ण-व्यवस्था का सूत्रपात किया। क्षत्रिय, वैश्य और शद्र एसे तीन वर्ण भगवान ऋषभदेव ने एवं ब्राह्मण वर्ण की स्थापना भरत चक्रवर्ती ने की।
इस प्रकार ६३ लाख पूर्व तक प्रजा का न्याय नीति से पालन कर धर्म-तीर्थ प्रवर्तन का विचार किया। अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया। शेष ९९ पुत्रों को पृथक-पृथक् राज्य देकर वर्षीदान दिया। जिसमें तीन अरब अट्टासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्णमुद्राओं का दान था। लोकान्तिक देवों ने तीर्थ प्रवर्तन की प्रार्थना की। ८३ लाख पूर्व गृहस्थाश्रम में बिताकर भगवान ने चैत्रकृष्णा अष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के योग में दीक्षार्थ अभिनिष्क्रमण किया। देव ,दानव, मानवों के विशाल समुदाय के साथ विनीता नगरी से निकलकर षष्ठ भक्त के निर्मल तप से अशोक वृक्ष के नीचे सिद्धों की साक्षी से भगवान ने पापों का सर्वथा त्याग किया। भगवान ने प्रथम चार मुष्टिक लुंचन किया। इन्द्र की प्रार्थना से भगवान ने एक मुष्टि के बाल रहने दिये।
इस प्रकार संयमी जीवन की साधना से सर्व प्रथम, मुनि, साधु के रूप में प्रसिद्ध हुए। चार हजार राजकुमारों ने भी भगवान के साथ दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण कर भगवान आत्म-साधना करते हए ग्राम नगरों में विचरने लगे। लोग भिक्षा देने की विधि से अपरिचित होने के कारण भगवान एक वर्ष तक आहार से वंचित रहे। इसी बीच कच्छ महाकच्छ के पुत्र नमि विनमि राज्य प्राप्ति के लिए भगवान के पास आये और भगवान की उपासना करने लगे। भगवान की सेवा से प्रसन्न होकर नागराज इन्द्र ने नमि-विनमि को विद्याधर की विद्या दी। जिसके प्रभाव से नमि-विनमि ने वैताढ्य गिरिमाला पर नये नगर बसा कर अपना स्वतन्त्र राज्य कायम किया।
एक वर्ष से अधिक समय बीतने पर भगवान विचरण करते हुए गजपुर पधारे। वहाँ बाहुबली का पुत्र सोमप्रभ राज्य करता था। उसके पुत्र का नाम श्रेयांस कुमार था। भगवान ऋषभदेव पर श्रेयांसकुमार की दृष्टि पड़ी। उसे जाति-स्मरण हो आया। उस समय कोई व्यक्ति कुमार को भेंट देने के लिए इक्ष रस से भरे घड़े लाया । जाति स्मरण के ज्ञान से श्रेयांसकुमार भिक्षा की विधि से परिचित था। भगवान जब श्रेयांसकुमार के सामने आये तब श्रेयांसकुमार ने इक्षुरस से भरा घड़ा उठाया और भगवान द्वारा फैलाये हुए हाथ में उसे डाल दिया। भगवान ने वर्षीतप का पारणा किया। हर्ष के कारण देवों ने पाँच प्रकार के पुष्पों की वर्षा की, दुदभियाँ बजाई, और साढ़े बारह करोड़ रत्नों की वृष्टि की। भगवान के पारने से लोग अपार हर्ष का अनुभव करने लगे।
भगवान ने छद्मस्थ अवस्था में एक हजार वर्ष व्यतीत किये। एक समय वे पुरिमताल नगर के शकटमख उद्यान में पधारे। फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन भगवान तेले का तप करके वटवृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में स्थित हए उत्तरोत्तर परिणामों की शद्धता के कारण घातीकमों का क्षय करके भगवान ने केवलज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त किया। देवों ने केवलज्ञान महोत्सव करके समवसरण की रचना की। बारह प्रकार की परिषद में भगवान ने धर्म देशना दी। उस समय भगवान पैतीस सत्य वचनातिशय और चौंतीस अतिशयों से सम्पन्न थे।
भगवान वनिता नगरी पधारे। बहत समय से अपने पुत्र ऋषभदेव का कुशल समाचार प्राप्त न होने के कारण माता मरुदेवी बहुत ही चिन्तातुर थीं। भरत महाराजा माता के चरण वन्दन के लिए मरुदेवी के पास गये वह उनसे भगवान के विषय में पूछ ही रही थीं कि इतने में एक पुरुष ने आकर भरत महाराज को "भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है" यह बधाई दी। उसी समय दूसरे पुरुष ने आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होने की और तीसरे पुरुष ने पुत्र जन्म की बधाई दी। सबसे पहले केवज्ञान महोत्सव मनाने का निश्चय करके भरत महाराज भगवान को वन्दन करने के लिए रवाना हुए, हाथी पर सवार होकर मरुदेवी माता भी साथ में पधारी।।
समवसरण के नजदीक पहुँचने पर देवों के आगमन और केवलज्ञान के साथ प्रकट होने वाले अष्ट महाप्रातिहार्य की विभूति को देखकर माता मरुदेवी को अपार हर्ष हुआ । वह मन ही मन विचार करने लगी कि--
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