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जुगाइजिदिचरियं
मास अवशेष थे तब नाभिकुलकर की पत्नी मरुदेवी की कुक्षी में आये। माता मरुदेवी ने चउदह स्वप्न देखे | स्वप्न में उन्होंने प्रथम ऋषभ को मुख में प्रवेश करते हुए देखा तदनुसार जन्म के पश्चात् भगवान का नाम वृषभ रखा गया। भगवान का जन्म चैत्र कृष्णा अष्टमी को हुआ देवों और इन्द्रों ने भगवान का जन्मोत्सव किया। जब ऋषभ देव एक वर्ष के हुए उस समय वे अपने पिता की गोद में बैठे क्रीड़ा कर रहे थे तभी शकेन्द्र हाथ में इशु लेकर आया । भगवान ने इन्द्र का अभिप्राय जानकर उसे लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। बालक का इक्षु के प्रति आकर्षण देखकर शक ने इस वंश को इक्ष्वाकुवंश नाम से स्थापित किया ।
युगादिजिनदेव का शरीर स्वेद, रोग, मल से रहित सुगन्धिपूर्ण सुन्दर आकारवाला और स्वर्ण कमल जैसा शोभायमान था । उनका संघयन वज्रवृषभनाराच था और संहनन समचतुरस्त्र । उनके शरीर में मांस और खून गाय के दूध की धारा जैसा उज्ज्वल और दुर्गन्ध रहित था ।
जब भगवान की उम्र एक वर्ष से कुछ कम थी तब की बात है— एक युगल अपनी युगल सन्तान को ताड़वृक्ष के नीचे रख कर क्रीड़ा करने की इच्छा से कदलीगृह में गया। हवा के झोंके से एक पक्व ताड़ का फल बालक के सिर पर गिरा। सिर पर चोट लगते ही बालक की मृत्यु हो गई। अब बालिका माता-पिता के पास अकेली रह गई। थोड़े दिनों के बाद बालिका के माता-पिता का भी देहान्त हो गया बालिका अपने साथी एवं माँ बाप के अभाव में अकेली पड़ गई। वह अब अकेली ही वनदेवी की तरह घूमने लगी देवी की तरह सुन्दर रूप वाली उस बालिका को युगल पुरुषों ने आश्चर्य से देखा और फिर वे उसी नाभि कुलकर के पास ले गये । नाभि कुलकर ने उन लोगों के अनुरोध से बालिका को यह कह कर रख लिया कि भविष्य में यह ऋषभ की पत्नी होगी । इस कन्या का नाम सुनन्दा रक्खा गया ।
भगवान ऋषभदेव जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक थे। इन्हें जाति स्मरण ज्ञान से अपने पूर्व जन्म का सम्यक् परिज्ञान था । यही कारण है कि इन्हें किसी कला गुरु से शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं हुई । वे स्वयं लोक गुरु थे ।
देवपति शकेन्द्र ने इनका सुनन्दा और सुमंगला के साथ नवीन विधि से विवाह संपन्न किया। वहीं से विवाह प्रथा प्रारंभ हुई। ऋषभदेव अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुख से रहने लगे छ लाख पूर्व से कुछ कम वैवाहिक सुख का अनुभव करते हुए उन्हें सन्तानोत्पत्ति हुई। सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी तथा सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी को युगल रूप में जन्म दिया। सुमंगला ने युगल रूप से ४९ बार में कुल ९८ पुत्रों को जन्म दिया। इस प्रकार भगवान के १०० पुत्र और दो पुत्रियां उत्पन्न हुई। दिगम्बर परम्परा में १०१ पुत्र भ. ऋषभदेव के माने हैं। एक नाम ऋषभसेन अधिक बताया है। भगवान के समय अग्नि उत्पत्ति हुई और उसके उपयोग की विधि भ ऋषभदेव ने तत्तकालीन समाज को सिखाई ।
युगलियों ने भगवान के चरणों में पद्मसरोवर से पद्मकमल के पत्तों में पानी ला कर भ० ऋषभ के चरणों में डालकर उनका राज्याभिषेक किया । इन्द्रादि देवों ने भी इस अवसर पर उत्सव किया। राजा बनने के बाद भगवान ने कुलकर व्यवस्था समाप्त कर नवीन राज्य व्यवस्था का निर्माण किया। चार प्रकार की सेना और सेनापतियों की व्यवस्था की । अपराधी को दण्ड देने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद आदि नीतियों का प्रवर्तन किया । लोगों को शिक्षा देने के लिए १०० शिल्प और असि, मसि, और कृषि रूप विद्याओं का उपदेश दिया। शिल्प कर्म का उपदेश देते हुए आपने प्रथम कुम्भकार का काम सिखाया फिर वस्त्र वृक्षों के क्षीण होने पर वस्त्र बनाने की कला, गेहागार वृक्षों के अभाव में वर्धकी कर्म, फिर चित्रकार कर्म, और रोम-नखों के बढ़ने पर नापित कर्म सिखाये । व्यवहार के संचालन के लिए मान, उन्मान, अवमान और प्रतिमान का ज्ञान कराया। साथ ही अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह प्रकार की लिपियों का ज्ञान कराया और सुन्दरी को बायें हाथ से गणित ज्ञान की शिक्षा दी ।
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