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काम दोनों भव के लिए हानिकारक है। नाटक के बीच वैराग्य की बातें सुनकर महाराजा क्रुद्ध स्वर में बोलेसयंबुद्ध तेरा यह ज्ञान-विज्ञान कैसा ? जो श्रुतिमधुर गीत को प्रलाप कहता है नाट्य महोत्सव को विडम्बना और आभरणों को भार कहता है। प्रत्युत्तर में स्वयंबुद्ध बोला- स्वामी ! गीत प्रलाप क्यों है और नाटघ महोत्सव विडम्बना क्यों है तथा आभरण भार क्यों है मैं आपको इन दृष्टान्तों से समझाता है। स्वयंबुद्ध ने गीतरति नाट्यरति चन्द्रानना और चन्द्रमुखी का दृष्टान्त सुनाया। (पृ० ३४) दृष्टान्त सुनकर मिथ्यामति सभिनमंत्री बोला- जब जीव का ही अस्तित्व सिद्ध नहीं होता तो परलोक या आत्मा का पुनर्जन्म कैसे सिद्ध होगा ? जब आत्मा का परलोक गमन ही नहीं है तब पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक अपने आप ही निरर्थक हो जाते हैं। यह सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने अकाट्य दलिलों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया और पुण्य-पाप से होने वाले अच्छे और बुरे फल समझाए स्वयंबुद्ध मंत्री के दलिलों से महाराजा बड़े प्रभावित हुए । अन्त में अपना अल्प आयुष्य जानकर महाबल ने दीक्षा ग्रहण की और अनशन पूर्वक देह का त्याग कर ईशान कल्प में महद्धिक ललितांग नामक देव बना । ( पृ० ४१ )
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स्वयंबुद्ध मंत्री ने भी सिद्धाचार्य के पास संयम ग्रहण किया। अन्त में अनशन पूर्वक देह का त्याग कर वह ईशान देवलोक में दो सागरोपम की आयुष्य वाला इन्द्र का दृढ़धर्मा नामक सामानिक देव बना ।
ललितांग देव की स्वयंप्रभा नामक देवी थी । वह अत्यन्त रूपवती थी । ललितांग उस पर अत्यन्त आसक्त था। संयोगवशात् स्वयंप्रभा का आयुष्य पूरा हुआ और वह मरकर धातकीखण्ड के पूर्वविदेह में नन्दी नामक ग्राम में नागिल नामक दरिद्र गृहपति के यहाँ छ लड़कियों के बाद सातवीं कन्या के रूप में जन्मी अपनी प्रियदेवी स्वयंप्रभा के आकस्मिक निधन से ललितॉग खूब उदास रहने लगा । तलितांगदेव को उदास देखकर युद्धधर्मा देव बोला - " आप एक स्त्री के लिए इतने उदास क्यों है ?" ललिताँग ने कहा - " मैं स्वयंप्रभा के बिना जीवित नहीं रह सकता । अतः वह मुझे पुनः प्राप्त हो ऐसा कोई उपाय करो।" तब दूध बोला--"आपकी देवी स्वयंप्रभा नंदि नामक ग्राम में नागिल नामक एक दरिद्र गृहपति के घर कया के रूप में जन्मी है। उसकी दुखिनी माता ने उसका नाम भी नहीं रखा अतः सभी लोग उसे निर्नामिका के नाम से पुकारने लगे हैं। माता पिता से उपे क्षित बनी हुई उस कन्या ने एक दिन 'युगंधर' नामक केवली से धर्मोपदेश सुना और उसने सम्यक्त्वपूर्वक धावक के बारह व्रत स्वीकार किये । ( वर्द्धमान सूरि ने श्रावक के बारह व्रतों का एवं सम्यक्त्व के दूषण भूषण का विवेचन और उन पर एक एक कथा का वर्णन किया है।) हे मित्र ! इस समय आचार्य श्री के उपदेश से निर्नामिका ने अनशन ग्रहण किया है । अत: तुम उसके पास जाओ जिससे वह तुम्हारे प्रति आसक्त होकर तुम्हारी पत्नी बनने का निदान कर सके।
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ललितांगदेव ने वैसा ही किया और उसे निदान करने के लिए समझाया। अन्त में निनामिका ने ललितांग देव की देवी बनने का निदान किया। निदान पूर्वक मरकर निर्नामिका पुनः ईशान देवलोक में स्वयंप्रभा के रूप में ललिताँग की देवी बनी।
छठा भव - ( पृ० १०६ )
वहाँ से चवकर ललिताँगदेव लोहार्गल नगर के राजा के घर जन्मा। वहीं उसका नाम वज्रजंध रखा ।
( जिनसेन कृत महापुराण में माता का नाम वसुन्धरा और पिता का नाम बखवाहू और नगर का नाम उत्पल खेटक दिया है । )
स्वयंप्रभा देवी भी वहाँ से आयु पूर्णकर पुण्डरीकिनी नगरी के स्वामी वज्रसेन राजा की रानी धारिणी की कुक्षि में पुत्री रूप से उत्पन्न हुई । जन्म के बाद उसका नाम श्रीमती रखा गया । ( महापुराण के अनुसार उसके पिता का नाम वदन्त और माता का नाम लक्ष्मीमती था । )
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