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________________ जुगाइजिदिवरियं अपना पड़ाव डाला। आचार्य पास ही की घास फूस की निर्दोष कुटिया में चातुर्मासार्थं ठहरे। उस अटवी में सार्थको अपनी कल्पना से अधिक काल व्यतीत करना पड़ा । फलस्वरूप साधन सामग्री समाप्त हो गई। लोग कन्दमूल खाकर अपना गुजारा करने लगे । १२ वर्षाकाल की समाप्ति पर धन्नासार्थवाह को स्मृति आई कि मेरे साथ जो आचार्य आये थे उनकी आज तक मैंने खबर नहीं ली। पश्चाताप करता हुआ वह मुनियों के पास पहुँचा और अनुनय विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगा कि - " मैं मंदभागी हूँ । आपको भूल गया। मेरे अपराध की क्षमा करें और मेरे घर आहार के लिए पधारे। आचार्य श्री ने सेठ को कल्प्य और अकल्प्यका बोध कराया । श्रेष्ठी ने कल्प्य को लक्ष्य में रखकर उत्कृष्ट भावना से प्रासु विपुल मात्रा में मुनियों को घृतदान दिया । विधि, द्रव्य, दातृ और पात्र दान की विशेषता के कारण सेठ को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। आचार्य श्री ने सेठ को धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश में आचार्यश्री दान, शील, तप एवं भावना धर्म की आवश्यकता पर भार देते हुए दान, शील, तप एवं भावना पर एक एक दृष्टान्त देते हैं। आचार्य श्री के उपदेश से सेठ बड़ा प्रभावित हुआ । सेठ अपने सार्थ के साथ वसंतपुर पहुँचा । वहाँ उसने खूब द्रव्य उपार्जित किया। वहाँ से नया माल खरीदकर वह वापस क्षितिप्रतिष्ठित नगर में पहुँचा। कुछ समय तक धर्माराधन करता हुआ सेठ स्वर्गवासी हुआ । द्वितीय भव (पृ० ३२ ) मुनिदान के प्रभाव से सेठ उत्तरकुरुक्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट की और जम्बू वृक्ष के पूर्व अंचल में जहाँ सर्वदा सुषम नामक आरा रहता है वहाँ युगलिया रूप में उत्पन्न हुआ। युगलिया का आयुष्यपूर्ण कर सेठ सौधर्म देव लोक में देव रूप से उत्पन्न हुआ । भगवान ऋषभदेव के उपरोक्त तीनों भवों का उल्लेख श्वेताम्बर मान्य आगम ग्रन्थों में तथा दिगम्बर पराम्परा में नहीं मिलता। वसुदेवह्निद्धि कहावली एवं आवश्यकचूर्णि तथा त्रिषष्ठीशलाका चरित्र आदि में इन तीन भवों का वर्णन है । चतुर्थ और पंचम भव- सौधर्म देवलोक से चवकर धना श्रेष्ठी का जीव पश्चिम महाविदेह स्थित गन्धिलावती विजय में वैताढप पर्वत के ऊपर गान्धार देश के गन्धसमृद्धि नामक नगर में विद्याधर राजा शतबल की रानी चन्द्रकान्ता की कुक्षी में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ जन्म के पश्चात् उसका नाम महाबल रखा महाबल युवा हुआ। उसका विवाह विनयवती नामकी कन्या से किया गया । कालान्तर में महाबल को राज्याधिष्ठित कर शतबल रानी के साथ दीक्षित हुआ। महाबल राजा के दो मंत्री थे एक का नाम सयंबुद्ध और दूसरे का नाम सम्यकदृष्टि था तो सभिन्नस्रोत मिध्यादृष्टि एवं नास्तिकवादी था । भिन्नस्रोत सयंबुद्ध जिनसेन कृत महापुराण तथा त्रिशष्टि शलाका पुरुष चरित्र के अनुसार महाबल राजा के बार मंत्री थे। सयंबुद्धि संभिन्नमति शतमति तथा महामति । सर्वबुद्धि और संभिन्नमति सम्यक दृष्टि से शेष दो मंत्री मिथ्या दृष्टि | एक दिन राजा महाबल राज सभा में अपने मंत्रियों के साथ बैठे हुए थे। इतने में द्वारपाल ने राजा को सूचित किया कि कोई गीतकार आप को अपना नाटक बताना चाहता है। राजा ने स्वीकृति दी और नाटक प्रारंभ हुआ। महाराजा नाटक को बड़ी आसक्ति के साथ देखने लगे। सबुद्धमंत्री को राजा की यह भोगासक्ति अच्छी नहीं लगी । नाटक के बीच ही सयंबुद्ध ने राजा से कहा - स्वामी ! गीत प्रलाप है नाटक बिडंबना है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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