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जुगाइजिणिदचरियं
३८. स्त्री के दुश्चरित्र पर सुन्दरी की कथा (प० १९१) ३९. विषय तृष्णा पर तृष्णा से अत्यन्त व्याकुल अंगार कर्मकार का दृष्टान्त (पृ० १९४) । ४०. पाँच कुलपुत्र की कथा (पृ० १९५)
यह कथा रूपक दृष्टान्त है। संसारपुर नाम के नगर में अभव्य, दूरभव्य, भव्य, आसन्नभव्य और तद्भनसिद्धिक ऐसे पाँच कुलपुत्र रहते हैं। संसारपुर के पास में ही नरकगतिपुर, तिर्यचगतिपुर, मनुष्यगतिपुर, देवगतिपुर एवं सिद्धगतिपुर नाम के पाँच पुर है। उनमें क्रमशः महामोह, अतिमोह, सम्मोह, मोह और क्षीण मोह नाम के पाँच सार्थवाह निवास करते हैं। उनकी क्रमशः नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति देवगति एवं सिद्धिगति नाम की पुत्रियाँ हैं। ये पाँचों सार्थवाह अपनी अपनी पुत्रियों के योग्य वर की खोज में संसारपुर में आते हैं। यहाँ उनकी पाँच कुलपुत्रों से भेंट होती है। उन पाँचों का पाँचों कुल पुत्रों के साथ वार्तालाप होता है। पांचों सार्थवाह यथायोग्य कुलपूत्रों के साथ अपनी-अपनी पुत्रियों का विवाह कर देते हैं। ।
अभव्य कुलपुत्र के साथ नरकगति का दूरभव्य के साथ तिर्यंचगति का, भव्य के साथ मनुष्यगति का, आसन्नभव्य के साथ देवगति का एवं तद्भवसिद्धिक के साथ सिद्धिगति का विवाह हो जाता है। ये सभी अर्थोपार्जन के लिए नौका द्वारा समुद्र की यात्रा करते हैं। समुद्री तुफान में इनकी नौकाएँ नष्ट हो जाती हैं। ये सभी तैर कर निर्जन द्वीप में पहुँचते हैं और वहीं निवास करते हैं। इत्यादि। यह कथा संसार की विचित्रता और जीवों के स्वभाव को समझने के लिए एक आदर्श रूपक दृष्टान्त है।
४१. कषायकुटुम्ब का दृष्टान्त । इस दृष्टान्त में क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय का दुष्परिणाम बताया है। यह भी एक रूपक दृष्टान्त है।
४२. सुईवोद्द श्रीदेव का उदाहरण । यह कथा लक्ष्मी की चंचलता एवं उसके विचित्र चरित्र को प्रकट करती
है
-दानफल पर संचय शील सार्थवाह का दृष्टान्त ।
४३. पंचावग्रह प्रदान पर जलनप्रभ का दृष्टान्त, इस कथा में जलनप्रभ की सौतेली माता, अग्निसिरि का चरित्र स्त्रियाँ चरित्र का दृष्टान्त है। यह कथा स्त्रियाँ चरित्र के लिए प्रसिद्ध दृष्टान्त पातालसुन्दरी का अनुकरण करती है।
४४. नरशेखर राजा की कथा।
इस प्रकार ४४ अवान्तर कथा के साथ साथ भगवान ऋषभदेव के तेरह भव, कुलकर एवं कुलकर व्यवस्था, जन्म तथा वंश की स्थापना, जन्मोत्सव, ऋषभदेव का विवाह, ऋषभदेव का राज्याभिषेक, ऋषभदेव की दीक्षा, विनीता नगरी की स्थापना, भरत-बाहुबली आदि पुत्रों का व ब्राह्मी सुन्दरी का जन्म, लिपिकला-लक्षण शास्त्रादि का प्रादुर्भाव, वर्णव्यवस्था ऋषभ देव की दीक्षा एवं पंचमुष्टि लुंचन एक संवत्सर के पश्चात पारणा, बाहुबलिकृत धर्मचक्र भगवान ऋषभ देव की केवलज्ञानोत्पत्ति, मरुदेवी माता का केवलज्ञान और निर्वाण, गणधर स्थापना और ब्राह्मी की प्रव्रज्या, भरत की विजय यात्रा और नव निधियाँ, भरतबाहुबलि युद्ध, पराजित भरत द्वारा चक्र रत्न का फैकना बाहुबलि की दीक्षा तथा केवल ज्ञान, मरीचि का स्वमति के अनुसार लिंग स्थापन, भगवान ऋषभदेव का निर्वाण । भरत का केवलज्ञान और निर्वाण । इन सबका आचार्य श्री ने अपने चरित्र में अत्यन्त प्रभावक शैली से वर्णन किया है। कथावस्तु--
ग्रन्धकर्ता प्रारम्भ में यगादि जिनदेव को वन्दना एवं उनकी स्तुति कर भगवान महावीर को वन्दना करते हैं। तदनन्तर अजितनाथ से पार्श्वनाथ जिन की स्तुति कर भरतपुत्र पुण्डरीक जो ऋषभदेव भगवान के प्रथम गणधर
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