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________________ ३८ जैनदर्शन का उद्भव और विकास और चारित्र का विचार मुख्य है किन्तु साथ ही जीव के भेद, उनकी इन्द्रियाँ और मन वया शरीर, उनकी आयु, उनकी लेश्या, उनके कषाय, रहने के स्थान, एक जन्म से दूसरे जन्म में होने वाली गति और आगति, जीव के कर्मबन्धके कारण, कर्म से छूटने के उपाय, नाना प्रकार की तपस्याएँ. सिद्ध जीव की गति और स्थिति तथा स्वरूप, कर्म की स्थिति, कर्म के प्रदेश, कर्मका विपाक-इन बातोंका विस्तार से विचार हुआ । जीव के साथ जो कम का बन्धन होता है वे अजीव पुद्गल के परमाणु होते हैं । अतएव पुद्गल का विस्तार से विवेचन भी हुआ । जीव और पुद्गल की गति मानी गई थी अतएव धर्मास्तिकाय की और उसकी स्थितिके लिए अधर्मास्तिकाय की कल्पना की गई । लोक-अलोक का पूरा भौगोलिक निरूपण हुआ । जीवको अवनति और उन्नतिकी प्रक्रिया का विचार हुआ । इसी संदर्भ में गुणस्थान की चर्चा की गई और उसी सन्दर्भ में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव जैसे महापुरुषों की विचारणा हुई। यह सब विवरण आगमों में देखा जा सकता है । जीव और पुद्गल के विवरण प्रसंग में व्युच्छित्तिनय और अव्युच्छित्तिनय, द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिकनप, नैगमादि नय, निश्चय और व्यवहारनय -इन सत्र नयों को कल्पना की गई । अभिप्रेत अर्थ के निर्णय के लिए निक्षेप और अनुयोगद्वारों की कल्पना को गई । इस प्रकार के प्रमेयों को व्यवस्था के लिए पांच ज्ञ न और प्रत्यक्ष-परोक्ष ज्ञानों को व्यवस्था सोची गई । यह सब भगवदो, प्रज्ञापना, जीवाजोवाभिगम, स्थानांग-समवायादि आगमों में दार्शनिक वि. कास की प्रक्रिया है। किन्तु इन सब में मुख्यरूप से भेद-प्रभेदों की गणना और निर्देश है । दलील यो तर्क को अवकाश बहुत कम मिला है। तार्किक प्रक्रिया का उद्भव और विकास तो दर्शनकाल के ग्रन्थों में हुआ है । अतएव यहाँ उसका भी संक्षेप में निर्देश करना जरूरी है। आगमों में जो कुछ विकास हुआ वह अधिकांश आंतरिक यानी जैनधर्म की अपनी जीवा. जीवकी मान्यता को लेकर हुआ और दार्शनिक ग्रन्थो में जो विचार और विश्लेषण हुआ वह बाह्य अर्थात् जनतर दर्शनों के संदर्भ में हुआ । सवसे प्रथम नयों के विषय में जो विचारविकास हुआ वह मल्लवादी के नय चक्रमें देखा जा सकता है। उसमें तत्कालीन सभी दर्शनों की मान्यताओं को ही नय के रूप में मानो गा है और इस प्रकार तथाकथित मिथ्यादर्शनों के समूह को जनदर्शन कहा गया। मिथ्यादर्शनों का समूह ही सम्यगदर्शन-जैन दर्शन कैसे होगा-इस प्रश्न के उत्तरमें कहा गया कि प्रत्येक नय अपने को हो सच मानकर चलत है और अन्य को मिथ्या। जब कि स्थिति यह है कि प्रत्येक नय आंशिक सत्य है अतएव अपने कदाग्रह के कारण ही वे मिथ्या कहे जा सकते हैं । जैनदर्शन उन नयों के कदाग्रह का निरास करके सभी को सत्य मानकर चलता है अतएव मिथ्या का समूह होकर भी सम्यक् बन जाना है । मल्लवादी को इस नय विचारणा की प्रेरणा मिली थी सिद्धसेन के सन्मतिसे जहाँ संक्षेप में नय का स्वरूप अन्य भारतीय दर्शनों के संदर्भ में सोचा गया था । इसी नय की विचारणा के आधार से अनेकान्तवाद की स्थापना देखी जा सकती है और उस स्थापना के लिए समन्तभद्र की आतभीमांसा मार्गदर्शक ग्रन्थ बन गया है। प्रश्न यह था कि हम आप्त किसे माने ? समन्तभद्र ने उत्तर दिया कि आप्त तो जैन त र्थकर ही हो सकते है क्यों कि उनके कथन में पूर्वोपर विरोध नहीं हैं । जव कि अन्य दार्शनिकों में वह विरोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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