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________________ सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कंध में जैनदर्शन ३१ - बौद्धों की एक अन्य मान्यताका' भी उल्लेख है जिसके अनुसार यदि जानबूझकर काय से हिंसा न करे, अबुध= बालक यदि हिंसा करे, तो केवल कर्म के स्पर्श की वेदना है, यह अव्यक्त सावधर्म है । अर्थात् ही उस अवस्था में हिंसा का पाप नहीं । पाप के तीन कारण हैं स्वयं हिंसा का अभिक्रम करे, दूसरे को भेज कर हिंसा का कर्म करे या मनसे हिंसा की अनुमोदना करे । यदि अपने भाव की विशुद्धि कर इन तीनों से विरत हो तो निर्वाणलाभ होता है । इस दृष्टि से यदि कोइ असंयत पुरुषने पुत्रको हत्या की हो ओर मेधावी (भिक्षु ) ( उसके मांसका) भोजन करे तो भी वह कर्म से लिप्त नहीं होता है (५०-५४)। चौद्धों के इस सिद्धान्त का विकसित रूप हमें अभिधर्मकोष में मिलता है जिसकी चर्चा विस्तार से तत्त्वार्थ टीकाकार सिद्धसेनने की है। यह चर्चा पं. सुखलालजीने ज्ञानचिन्दुकी प्रस्तावना में उपस्थित की है ( पृ० ३०) और श्री जंबूविजयजी ने भी सूत्रकृतांप की प्रस्तावना में ( पृ० १०-१२ ) इस चर्चा को पुनः स्पष्ट किया है । मूलपाठों के लिए देखे ज्ञान बिन्दुप्रकरण टिप्पणानि पृ० ७९-९७ । आजीविकों के नियतिवाद के विषय में कहा गया है कि जीवको जो सुखदुःख मिलता है उसका कारण स्वकृत या परकृत कर्म नहीं किन्तु वह संगतिक है । और यह भी कहा है कि वे यह नहीं जानते कि क्या नियत है और क्या अनियत है ( सुत्रकृ० २७-३०) । अर्थात् ये अहेतुवादी है (सर्वमहेतुतः प्रवर्तत इति सूत्रकृ० चू० पृ० ३१) । संगतिक शब्द का अर्थ चूर्णि में है - "संगतियं णाम सहगतं संयुक्तमित्यर्थः । अथवा अस्य आत्मनः नित्यं संगतानि इति । संगतेरिदं संगतियं भवति, संगतेव हितं संगतिकं भवति” – सुत्रकृ० चू० पृ० ३१ । नियत-अनियत के स्पष्टीकरण में कहा है कि कुछ कर्म अवश्य वेदनीय है जैसे कि निरुपक्रम आयु देव और नारकका । यह नियतबेदनीय है । और सोपक्रम आयु को अनियत वेदनीय कहा है सूत्रकृ० चू० पृ० ३२४ । स्पष्ट है कि जब इस मतका निराकरण किया तो कर्म और उसके फल की मान्यता होने से कर्मवादी जैनमत हो यह सिद्ध होता है और आचाराग में प्रारंभ में ही मान्यता को स्वीकृति दी ही है (आचो० ३ ) । कर्मवाद की अज्ञानवादियों के मतका निर्देश करके कहा है कि कुछ श्रमण-ब्राह्मण हैं जो कहते हैं कि हम सब कुछ जानते हैं, लोकके अन्य जीव कुछ भी नहीं जानते, वे तो म्लेच्छके समान हैं, जो अम्लेच्छकी बात सुनकर उसकी आवृत्ति मात्र करते हैं । तात्पर्य वे समझते नहीं इत्यादि (४०-४९) । पालिपिटक में जो संजय बेलट्ठपुत्त का मत निर्दिष्ट है उसकी संज्ञा विक्षेपवाद है और वह इस अज्ञानवाद से पृथक् प्रतीत होता है । प्रस्तुत अज्ञानवाद के निराकरण से इतना ही फलित होता है कि ज्ञान किसी एक को हो है और शेष मूर्ख है ऐसा नहीं माना जा सकता। जो भी आने ज्ञानावरण का निराकरण कर सके वह स्वयं ज्ञानी होगा यह बात जैनको मान्य होगी । अर्थात् ही सब जीवको ज्ञानी बनने का अधिकार है - यह जैनमत फलित होता है । १. यहाँ उसे क्रियावादी कर्मवादी कहा है । सूत्रकृ० पृ० ५० । २. इस बौद्धमतकी पुष्टि के लिए देखें सूत्रकृ० पृ० ३६० - ३६१ में बौद्ध उद्धरण । ३. व्याख्या के लिए सूत्र० चू० पृ० ३७-३८ । ४. तत्त्वार्थभाष्य २. ५२ । ५. दीघ० पृ० ५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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