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सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कंधमें जैनदर्शन
२९ पंचमहाभूतवादी के बाद एकात्मकवादका निराकरण है (९-१०)। नियुक्ति में इसे 'एकप्पए' (गा ०२७) अर्थात् 'एकात्मक' कहा है। चूर्णिमें व्याख्या है कि "तत्र केचित् एकात्म जगदिच्छन्ति । तत्र केषांचिद विष्णुः कर्ता, केषांचिद् महेश्वरः । स हि कृत्वा जगत् पुनः संक्षिपति” । सूत्र० चू० पृ० २५।।
सूत्रकृतांगमें इस मतका स्पष्टीकरण है कि जैसे एक ही पृथ्वी स्तूप है किन्तु वह नानारूपमें दीखता है वैसे ही एक 'विष्णू' नाना रूपमें दीखता है । यहाँ 'विष्णू' का अर्थ विज्ञ भी है और विष्णु भी (चू० पृ. २५)। किन्तु नियुक्तिका 'एकात्मवाद' एक ब्रह्म या एक आत्मा जो अनिषद् में मान्य है वही हो सकता है । एक ही ब्रह्म नाना रूपों में दीखता है यही मन्तव्य एकात्मवादी का है। और यह भी कि वही एक पाप करके उसका फल (दुःख) भोगता है- सूत्रकृ १० ।
इस मतको जब अन्य मतके रूपमें निर्दिष्ट किया उससे यहो फोलित हुआ कि जैनदर्शनमें जगत् एकात्मक नहीं है । उसमें नाना जीव हैं और वे अपने अपने कर्मों का फल भोग करते हैं। एक ही आत्मा नहीं ।
इसके बाद सूत्रकृतांग में तज्जीव-तच्छरीरवाद का निराकरण है-ऐसा नियुक्ति (गा०२७) और चूर्णिमें पृ०२३ में कहा गया है। सूत्रकृतांग में (सूत्रकृ० ११-१२) इस मतका विवरण है कि नाना सत्त्व-जीव औरपातिक नहीं हैं अर्थात् नया जन्म धारण नहीं करते, पुण्य नहीं है, पाप नहीं है, इसके बाद कोई परलोक भी नहीं । शरीर के विनाश के साथ ही देही आत्मा का विनाश हो जाता है । स्पष्ट है कि यह मत अक्रियावादी है। और इसकी तुलना अक्रियावादी पुरण कस्सपके मतसे की जा सकती है । उच्छेदवादी अजित 'केसकम्बलका मत भी ऐसा ही है । उस के मतमें भी सुव.त-दुष्कृत का फल नहीं और परलोक भी नहीं । चतुर्महा. भत से पुरुष का निर्माण होता है और मृत्यु के बाद भूतों में मिल जाता है । इन का मत भी तज्जोवतन्छरोरवाद और अक्रियावाद कहा जा सकता है ।
इस तज्जीव-तच्छरीरवाद को अमान्य करने से फलित होता है कि जैनमतानुसार आत्मा स्वतंत्र है । वे नाना है यह तो कहा ही गया है और अब यह फलित हुआ कि मृत्यु के साथ आत्मा का उच्छेद नहीं होता, वह अपने कर्मके अनुसार पुनर्जन्म धारण करता है और कम विहीन होकर मुक्ति लाभ भी कर सकता है।
तज्जीवतच्छरीरके निराकरणके बाद अकारकवाद का निराकरण है ऐसा चूर्णि (पृ०२७) में स्पष्टीकरण है। सूत्रकृतांग में इस मतके अनुसार आत्मा कर्ता और कारक भी नहीं आत्मा तो अकारक है (१३)। इस मतको चूर्णिमें स्पष्टरूप से सांख्य का मत बताया है । सांख्यों ने आत्मा को अकर्ता माना है -यह सर्वविदित हैं । उअनिषद में भी इस मत की पुष्टि देखी जाती है- छान्दोग्य ७-९-१ में आत्माको अकर्ता कहा गया है । और गीताने (१३-३.) भी आत्मा के अमर्तृत्वका समर्थन किया है । इस तरह अकारकवाद के निराकरणसे स्पष्ट होता है कि जनदर्शन में आत्मा को कर्मका कर्ता माना गया है ।
१. "पूरणो कस्सपो...अकिरियं व्याकासी" दीघ पृ० ४६ । २. "अजितो केसकम्बलो .. उच्छेदं व्याकासी' दीघ पृ०४८ । ३. दीघ० पृ. ४८ ।।
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