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________________ जैनदर्शन का उद्भव और विकास यहाँ सूत्रकृतांग में जो त्रस के भेद गिनाए उससे यह भी सिद्ध होता है कि बाद में ज उपपात जन्मवाले नारक और देव माने गये (नारकदेवानामुपपातः-तत्त्वार्थ २.३५) उनका समावेश त्रस में नहीं है ।' अथवा उनका समावेश त्रसके भेद रूप से गिनाए गये अण्डज आदि में से किसी एक में मान्य होगा । लेकिन स्पष्ट है कि सूत्रकृतांग में अभी गर्भज भौर सम्मुञ्छिम इत्यादि समग्र जन्म प्रकारों की कल्पना स्पष्ट नहीं है। केवल गर्भज की कल्पना है-२२, २७, ९० । आचा• ४९. में कहा है- “संतिमे तसा पाणा, तं जहा- अंडया, पोतया, जराउया, रसया, संसेयया, सम्मुच्छिमा उब्भिया उववातिया ।' स्पष्ट है कि आचारांग का यह सूत्र सूत्रकृतांग के सूत्रों का संशोधित रूप है- यह कोई भी कहेगा । आचारांग में "उववाइय (औपपातिक) और उववाय (उपपात) ये शब्द केवल जन्मसामान्य अर्थ में प्रयुक्त है । विशेष प्रकारका 'उपपात' जन्म जो देव नारक का अभिप्रेत है उस अर्थ में यहां उपपात अभिप्रेत नहीं है । आचारांग में जन्म के लिए 'उपपात' और मरण के लिए चयण' शब्द का प्रयोग भी इसमें साधक प्रमाण है "उववायं चयणं णञ्चा' आचा० ११९ १८०, २०९। 'उपपतनं उपपातो, जं भणितं जम्म चयणं नाम मरणं । ण य तेल्लोके वि त ठाणं अस्थ जत्थ उववातो चयणं वा ण भवति आचा. च० प्र० ११६ । इससे हम कह सकते हैं कि जन्म का विशेष प्रकार 'उपपात' जो देव-नारक के लिए व्यवस्थित हुआ वह आचारांग काल की कल्पना नहीं है। या यों कहें कि वह जैनों की प्राचीनतम कल्पना नहीं है। बाद में कभी भी जोड़ी गई है। प्रमाण यह है कि आचारांग के अन्य सूत्रों में उसका उल्लेख नहीं और सूत्रकृतांग में भी उस विशेष अर्थ में प्रयुक्त नहीं । इस कल्पना को प्रथम किसने की यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु बौद्धों में भी देवों के विषय में ऐसो कल्पना को गई है- दीघनिकाय (भा. ३- पृ०८३) गन 'ओपातिक' शब्द की अकथा में उसका अर्थ दिया है कि जो माता- पिता के बिना जन्म होता है, जैसा की देव का वह ओपपातिक है इतना ही नहीं योनि के चार प्रकारों को भी बौद्धों ने गिनाया है और वे हैं-अण्डजयोनि, जलाबुजयोनि संसेदजयोनि और ओपपातियोनि-दीघ० भाग ३. पृ०१७९ । इसकी तुलना आचारांग-सूत्रकृतांग से करें तो स्पष्ट होगा 'उपपात' को विशेषयोनि के अर्थ में लेना यह प्राथमिक कल्पना नहीं है । कभी बाद में यह व्यवस्था हुई है । इसके साथ तत्वार्थ के २-३४-३६ की तुलना करें जहाँ व्यवस्था दी गई है कि जरायुज. अण्डज पोतज का जन्म गर्भ है, देव और नारक का जन्म उपपात है और शेष जीवों का सम्मूर्छन जन्म है। दीघ निकाय (पृ०१९५ ) में 'दिव्वा गम्भा' का उल्लेख है जिस पर ध्यान दिया जाय तो स्पष्ट होगा कि विचार व्यवस्था की पूर्व भूमिका में देवों के भी 'गर्भ' से जन्म की मान्यता होगी चाहे यह अस्पष्ट हो कि गर्भ में आगति माता-पिता के संयोग से होगी या उसके बिना । किन्तु 'उपपात' का विशेषार्थ देकर इस शंका का निराकरण किया गया कि माता-पिता के संयोग के बिना वह होता है । और योनि के भेद में उसे पृथक् बताकर उस नये विचार की व्यवस्था भी की गई। १. सूत्रकृतांग ५४७ में अन्य मत के प्रसंग में राक्षस, यमलौकिक, सुर, आकाशगामी गंधर्व को काय संज्ञा दी गई है। २. उपपातः- प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंक्रान्तिः, अपाते भवः औषपातिकः । आचा० शी. १६१। 'उववाइय' आचार,२,४१ । उवाय' ११९, १८०,२०९। यहाँ टीकाकार उप+पत् समझते है किन्तु वास्तव में वह उम+पद् का रूप लिया जाय तो अच्छा होगा। देखें उपपाद, उपपादुक शब्द, Buddhist Hybrid Sanskrit Dictionary (BHS). ३.देखें पालि डिक्शनेरी में 'उपपातिक' और 'ओपपातिक' तथा BHS में 'औपपादुक' जरायुज, अण्डज और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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