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आचारांग प्रथम श्रुतस्कंधमें दर्शन का रूप भेद करके लोभादि के क्षय से निर्वाण होता है यह स्पष्ट किया गया है। बौद्धों में भी क्षय के लिए उपशम शब्द का प्रयोग होता है ।
निरोध' शब्द का प्रयोग 'सम्वगायनिरोध' (२४७) इस प्रकार से है । यह प्रसंग मारणां. तिक संलेखना का है जिसमें यह कहा है कि कितना भी उत्ताप हो यावत् सब गात्र का निरोध का प्रसंग भी आवे तब भी अविचल रहे-आचा० चू०पृ० २९४ ।
आना० का आठवां अध्ययन 'विमोक्ष' नामक है। इस 'विमोक्ष' की व्याख्या प्रसंग में नियुक्ति (गा०२६०) और चूर्णिकार (पृ०२४६) ने 'देशविमोक्ष' और 'सर्वविमोक्ष' की चर्चा की है, तरतमभाव से कषाय से छूटना देशविमोक्ष और सर्वथा कषाय से मुक्त होना सर्वविमोक्ष है। सिद्धों को सर्वविमोक्ष है और श्रावक और साधुओं में देशविमोक्ष है। कर्म से आत्माका जो संयाग है वह बंध है और उससे वियोग-छुटकारा मोक्ष है- इस बात को नियुक्ति (२६१) में स्पष्ट रूप से कहा है ।
___ इस 'विमोक्ष' अध्ययन में मारणांतिक संलेखना करनेवाले को किस प्रकारकी आपत्तियां आती हैं और उसे उन आपत्तिओ का समभाव से किस प्रकार सहन करना जरूरी है यह बताना अभिप्रेत है । और यह संलेखना मोक्षोपाय होने से विमोक्ष है यह नियुक्ति में स्पष्टरूा से कहा गया है और चूर्णिमें (पृ. २४६-७) उसका समर्थन है
___ भत्तपरिन्ना इंगिणि पायवगमणं च होइ नायव्वं ।
जो मरइ चरिममरणं भावविमुक्खं वियाणाहि ॥” आचा० नि० २६३ । आचा० ९९, १६१ और १८८ में सम्यक्त्वदर्शी' और विरत मुनि को 'मुक्त' संज्ञा दी है। वह मुनि अपने आहार कष्टों को सहन कर संसार को पार कर जाता है। और कर्म शरीर का परित्याग करता है।
इस सब चर्चासे इतना तो स्पष्ट है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र को तत्त्वार्थसूत्र में जो मोक्षमार्ग कहा वह आचागंग की चर्चा के सारांश को ध्यान में रख कर है। साथ में यह भी देखना जरूरी है कि कहीं एक स्थान में तीनों का एकत्र उल्लेख आचारांग में इस रूपमें नहीं है।
आचारांग 'आचार' का ग्रन्थ होनेसे उसमें दार्शनिक विचारों का प्राधान्य नहीं हो सकता यह दलील दी जा सकती है किन्तु उसमें होने वाले शब्द प्रयोगों के आधार पर दर्शन की कलाना तो को जा सकता है और उसी का निर्देश मैंने यहाँ करने का प्रयत्न किया है । आचारांग अनेक स्थानों में खंडित है । अतएव पूरी बात हमारे समक्ष आ नहीं सकती यह भी तथ्य है किन्तु जो कुछ उपलब्ध है उसीको आधार बना कर हो कहा जा सकता है और जो कुछ मैंने यहां कहा है वह आगेके विकास को स्पष्ट रूप से फलित करने में समर्थ है। जैन दर्शन का क्रमिक विकास हुआ है और उस क्रमिक विकास की भूमिका आचारांग में हैइतना ही कहना यहाँ अभिप्रेत है ।
इतनी चर्चा से स्पष्ट होता है कि जैन दर्शनकी प्राथमिक भूमिका में 'षड्जीवनिकाय' और अचित पदार्थ की कल्पना की गई है। 'अस्थिकाय' शब्द अभी व्यवहार में आया
१. भद्धा का उल्लेख आचा०२० में है। श्रद्धानक्रिया का उल्लेख २५२ में है । 'सम्यक्त्व' के लिए देखें-आचा० १८७, २१४, २१७, २१९, २२१-२२३, २२६, २२७ । सम्यक्त्वदर्शी के लिए ९९, ११२, १४० भी देखें ।
1 कृश हो जाता है
और
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