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जैनदर्शन का उद्भव और विकास
अभिप्रेत तो नहीं ? जो भी हो किन्तु चूर्णिकार ने किसी भी तरह जैन के अनुकूल इसकी व्याख्या की है कि यहाँ तीर्थकर केवली 'कुशल' पद से अभिप्रेत है और वह चार घाती कर्म की मुक्ति के कारण बद्ध नहीं और भवोपग्राही कर्म से बद्ध होने से मुक्त नहीं-पृ०१०० । किन्तु आचारांगमें जब यह वाक्य लिखा गया है तब आठ कर्मों की व्यवस्था जो बाद में देखी जाती है वह व्यवस्थित हुई थी या नहीं यह एक प्रश्न है ।
भगवान महावीर ने जो मार्ग बताया उसकी विशेषता यह है कि भिक्षु परिग्रह से विरत रहे । जो भी अपने पास आवश्यक परिग्रह हो उसमें भी ममत्व न रखे जिसका परिणाम होगा कि वह कहीं भी लिम नहीं होगा , बन्धन में भी नहीं पड़ेगा। बन्धन क्या है इसकी स्पष्टता की गई है "रूवेहिं सत्ता कलुगं यणति "णिदाणतो ते ण लभंति मोक्वं ।" १७८ । अर्थात् ही रूप में आसक्ति के कारण निदानचन्धन होने से मोक्ष मिलता नहीं । अन्यत्र 'पापमोक्ष' निर्दिष्ट है- ७३ । इससे स्पष्ट होता है कि 'पाप' बन्धन है जिससे मुक्त होना जरूरी है । 'पाप' और 'पापकर्म' का उल्लेव तो आचागंग में अनेक स्थान में है। यह भी कल्पना सर्वसाधारण है। किन्तु 'कर्मशरीर' से मुक्ति की बात जैन परिभाषा में कहीं गई है, ऐसा माना जा सकता है -"मुणी मोण' समादाय धुणे कम्मसरीरगं" ९९ । काय के निराकरण से मुनि पारगामी होता है- ऐसा भी कहा है- १९८ । जो पारगामी हैं वे विमुक्त हैं-७१ । अर्थात् ही जिन्होंने सांसारिक बन्धनों को तोड़ दिया है, वे संसारसमुद्र के पारगामी हैं- विमुक्त हैं । मुक्त जीव की क्या परिस्थिति होगी यह- "आगतिं-गतिं परिणाय अच्चेति जातिमरणस्स वडुमगं वखातरते" (१७६) इस पात्य से स्पष्ट है कि मुक्त होने के बाद जन्म-मरण के फेरे समाप्त हो जाते हैं। मुक्त आत्मा का स्वरूप विषयक अवतरण
। गया है। विशेष में यह भी स्पष्ट है कि वहाँ जव जाति -मरण है नहीं तो दुःख भी नहीं है- ७,१३,२४ इत्यादि।
मुक्ति का अर्थात् जन्ममरण के निवारण का और दुःख के प्रतिघात का कारण अहिंसा है- इस बात को आरंमनिवृत्तिहिं पातिवृत्ति का आदेश देकर चार बार दोहराया है- आचा० ७, १३ २४, ३५, ४३, ५१ और ५८ ।
मुक्तिमार्ग की चर्चा के प्रसंग में आचारांग का यह वाक्य ध्यान में लेना जरूरी है "से किट्टति तेसिं समुष्ठिताण निविखत्तदंडाणं समाहिताण पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं"आचा० १७७। इस सूत्र में निक्वितदंड-अहिंसा, समाहि-समाधि और पण्णाण प्रज्ञा की ओर संकेत है। बौद्धों में शील, समाधि और प्रज्ञा को निर्वाण का मार्ग बताया जाता है । उसी का पूर्व रूप यह है । किन्तु जैन दर्शन में आगे चलकर दर्शन, ज्ञान, चरित्र को मोक्ष मार्ग बताया गया उसमें चारित्र-शील को अन्तिम स्थान दिया है और यहां चौद्धों की ही तरह शील को प्रथम स्थान मिला है- यह ध्यान में रखने की बात है। स्पष्ट है कि जैनों ने आगे चलकर प्रज्ञा= शान को नहीं, चारित्र को विशेष महत्त्व दिया ।
चूर्णि (पृ०२३७) में आचा० १९६गत निर्वाणव्याख्या में लोभादि के उपशम से निर्वाण होता है यह कहा है। यह प्राचीन परिभाषा है । बाद में तो उपशम और क्षय ऐसे
१. आचा०८८-८९ । अन्यत्र परिग्रह को महाभय कहा है। आचा० १५४ । २. और भी देखें "जातिमरणमोयणाए'' ७,१६,२४ ३५, ४३,५१, ५८ ।
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