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________________ जैन दर्शन का उद्भव और विकास भी हैं । जसे आचारांग जहाँ वनस्पतिमें जीवकी सिद्धि की गई है। और राजप्रश्नीय जहाँ जीव की सिद्धि अनेक तर्क देकर करने का प्रयत्न किया गया है । किन्तु यह विषय ऐसा है जो प्राचीन काल से तर्कका विषय बना हुआ है अतएव आगम में भी उस विषय में तर्क देखा जाय तो कोई आश्चर्य नहीं । - अंगोंमें चरणानुयोग का प्राधान्य - अंग आगम द्रव्यानुयोगप्रधान नहीं हैं किन्तु चरणानुयोगप्रधान है यह मान्यता नियुक्तिकाल तक रही है और चूर्णिओं में 'भी उसका समर्थन मिलता है। अतएव मौलिक अंग आगममें प्रमेयतत्वों के विषयमें विशेष विचार नहीं हुआ होगा यह मानना पड़ता है। अतएव यहां जिन दो अंग आगमों में-आचारांग और सूत्रकृतांग में जैनदर्शन की खोज की जा रही है उसमें दार्शनिक विचार खासकर द्रव्यानुयोगका विचार कम हो मिल सकता है, क्यों कि इनका विषय मुख्यरूर से आचारको विशुद्ध को दिखाना यही है । फिर भी जो कुछ भी मिलता है उसीका संग्रह यहां करनेका प्रयत्न किया गया है । आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध में दर्शनका रूप .आगम के दर्शन का विचार करें तो हमे पुनः यहां भी कहना पड़ेगा कि दर्शन का प्राचीनतम रूप आचागंग और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंधों के आश्रयसे ही स्पष्ट हो सकता है । प्राचीन उपनिषदों के बादके हमारे आगम हैं यह तो निर्विवाद है। उपनिषदों में किसी एक तत्त्वसे जगत का निर्माण है । अर्थात वहां अनेक प्रकार की विचारणा हो करके यही तय पाया गया कि तत्त्व तो एक ही है और वह हैं आत्मा या ब्रह्म । उसीका प्रपंच यह जगत है । इसके विरुद्ध जैन और बौद्ध ने तत्त्वों को नाना माना । बौद्धों के मतसे पंचस्कंध और संक्षेप में कहना हो तो नाम और रूप दो तत्त्व फलित होते हैं । बौद्ध मतसे आत्मा या जीवस्थानीय चित्त है और उसीको नाम कहा गया है। रूपसे जड पदार्थ की सूचना मिलती है । आचासंग में भी चित्त, चित्तमंत, जीव, आत्मा ये शब्द चेतन पदार्थ के लिए प्रयुक्त हैं । और अजीव के लिए अचित्त, अचेतन शब्द का प्रयोग है। किन्तु 'अजीव' शब्द का प्रयोग नहीं देखा जाता । तात्पर्य यही है कि इस कालमें 'जीव' और 'अजीव' यह परिभाषा स्थिर नहीं हुई है । जीवके लिए भी प्राण, भूत और सत्त्व ये शब्द भी प्रयुक्त हैं जो कालक्रमसे छोड़ दिये गये । क्योंकि जीवके प्राण होते हैं और भूत से तो जड पदार्थ लोगों समझा जाने लगा था। सच भी निश्चित अभिप्रेत अर्थ देने में समर्थ नहीं था। अतएव जब तत्त्व या पदार्थ की गणना का प्रश्न आया वहां जीव और अजीव ये शब्द ही कालक्रममें अपनाया गया। - आत्मा के लक्षण में कहा गया है-"जे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से आता, जेण विजाणति से आता -आचा० १७१ । इसके बादके सभी ग्रन्थों में इसके स्थान में 'उपयोग' को जीत्र का लक्षण कहा गया है। यह प्रगति का सूचक है । क्योंकि ज्ञान और दर्शन दोनोंका समावेश जीवलक्षणमें करना अभिप्रेत हो गया था। १ सूत्रकृ. चूर्णि पृ०३ । आवश्यकनि.मू. भाष्यगाथा १२४, नि.गा. ७७७ (हा०) । २ आचारांग की नियुक्ति में वेद संज्ञा दी गई है। आचा० नि० गा०११ । ३ आयारंगसुत्तं (महा०वि०) गत शब्दसूची देखें । ४ यह विचार भी उपनिषद के अनुकूल है जहाँ विज्ञानमय आत्मा माना गया है । उप. निषद्वाक्य महाकोष पृ० ५७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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