SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों में चर्चित विषयों का क्रमिक विकास ही महत्त्व दिया गया है। गृहस्थधर्म की तो केवल निंदा ही है। आगमगत इसी प्राचीन मान्यता में क्रमशः जो परिवर्तन आया वह अन्य आगमों की तद्विषयक चर्चा से स्पष्ट होता है। आगे चलकर गृहस्थ या उपासक वर्ग का निर्माण हआ और उनको भी जैन संघ में स्थान मिला । यह स्वाभाविक प्रक्रिया है । श्रमणों के आचार का विवरण देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि नियम रूप से पांच महाव्रतों के स्वीकार की कोई चर्चा आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में नहीं है। सूत्रकृत प्रथमस्कंध की एक गाथा में प्राणातिपातादि पांच दोषों का उल्लेख एक साथ है और कहा गया है कि 'जिणसासण परंमुहा' जो हैं वे इन दोषों का पोषण स्त्री के वश होकर करते हैं (२३२-२३३)किन्तु इस प्रकार पांचों दोषों का कोई उल्लेख एक साथ आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध में नहीं है । और नहीं एक साथ उनकी विरति की चर्चा आचारांग में है। इससे स्पष्ट होता है कि श्रमणों को पांच महाव्रत का स्वीकार करना चाहिए- यह प्रक्रिया कालक्रम से जैन संघ में आई है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों यह मानते हैं कि प्रारम्भ में श्रमण सामायिक व्रत का स्वीकार करते हैं इससे भी सूचित होता है कि श्रमण बनने की यही प्रक्रिया थी और सूत्रकृत में तो स्पष्ट ही लिखा है कि भगवान महावीर ने ही सर्व प्रथम सामायिक का उपदेश दिया “ण हि णूण पुरा अणुस्सुयं अदुवा तं तह णो समुट्टियं । मुणिणा सामाइ आहियं णाएण जगसव्वदं सेणा ॥ सूत्रकृत-१४१. आचारांग के उपदेश का सार देखना हो तो यही है कि संसार में षड्जीवनिकाय हैं। वे सभी सुख चाहते हैं दुःख कोई नहीं चाहता, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव किसी भी प्राणी या जीव को पीड़ा देना नहीं चाहिए। जैसा मुझे सुख प्रिय है, सभी को सुख प्रिय है अतएव किसी को पीड़ा देना नहीं चाहिए-यही समताभाव है-जो सामायिक है। इसी प्रश्न को लेकर भगवान का उपदेश हुआ । इसी अहिंसा में से सत्यादिका स्वीकार हुआ। सूत्रकृतांग के प्रारम्भ में ही भगवान महावीर ने यह कहा है कि परिग्रह ही बन्धन है और उसी के कारण जीव हिंसा आदि का आचरण करता कराता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो सब पापों का मूल भ. महावीर की दृष्टि में परिग्रह को ही माना गया । और यही कारण है कि उन्होंने अपने श्रमण जीवन में नग्नता का स्वीकार किया और अचेलधर्म का प्रतिपादन किया। यह स्वाभाविक है कि यह कठोरतम धर्म था जिसकी निंदा भ. बुद्ध ने की है। जिस प्रकार अतिभोग एक एकांत है उसी प्रकार भोग का आत्यंतिक त्याग-आत्मा को अतिकष्ट देना-भी दूसरा एकान्त है । अतएव भ. बुद्ध ने तो दोनों अंतोको छोड़कर मध्यम मार्ग का स्वीकार किया । यही कारण है कि जैम श्रमण परम्परा में भी भ. महावीर का आत्यंतिक अचेलक मार्ग पमपा नहीं और श्वेताम्बर संप्रदाय या सचेलक सम्प्रदाय का उद्भव हुआ है । दिगम्बरों में भट्टारक सम्प्रदाय भी इसी बात की पुष्टि करता है कि आत्यंतिक कष्ट का मार्ग सबके लिए प्रशस्य नहीं है। हम भले ही मध्यममार्ग को शिथिलमार्ग कह करके उसकी निन्दा करें किन्तु सर्वजन सुलम तो १"सम्बं में अकरणिज्जं पापकर्म ति कट्ट सामाझ्यं चरितं पडिवज्जई" आचारांग श्रु० २ अ० १५, सु० १०१३ (महावीरचरित) २ सूत्रकृतांग में भी नग्नता की ही प्रतिष्ठा श्रमण के लिए निर्दिष्ट है-"जस्सहाए कीरइ नग्गभावे मुंडभावे" सु० ७१४, पृ०१८५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy