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________________ जैन आगम दोनों को मान्य है अतएव यह कहा जा सकता है कि सम्प्रदायभेद होने के पूर्व यह व्यवस्था हो गई थी। अंगके बाद अंगबाह्य आगमका प्रश्न है। उत्तराध्ययन में ग्यारह अंग, अंगबाह्य, प्रकीर्णक और दृष्टिवादका उल्लेख हैं-२८.२१,२३ । आचार्य उमास्वातिके -तत्वार्थभाष्यमें अंगबाह्य में सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ, ऋषि-भाषितादि-का उल्लेख है। नामतः १३ की गिनती की गई और 'आदि' से अन्य भी अभिप्रेत होंगे । यही सूची थोडे परिवर्तन के साथ धवलामें है जहाँ १४ अंगबाह्य नामतः गिनाये गये हैं । इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि यह सूची सामायिक आदि पृथक् छः प्रकरण ग्रन्थों का समावेश 'आवश्यक' नाम से किया गया उसके पूर्वकी है। अतएव उत्कालिक अंगबाह्यके आवश्यक और तद्वयतिरिक्त इस प्रकार का जो विभाजन श्वेताम्बरों में हुआ इसके भी पूर्वकी यह सूची है-ऐसा मानना चाहिए । इस प्रकार का विभाजन नंदी (सू०७८, पृ०५७) और अनुयोगद्वारसूत्र में (सू. ५, पृ० ६०) है । __ स्थानांग-समवायांग में अंगबाह्य माने जाने वाले ग्रन्थो में से केवल क्षुद्रिकाविमानविभक्ति, महाविमानविभक्ति, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशा-कल्प--व्यवहार, चन्द्रप्राप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और द्वीपसागरप्राप्ति का उल्लेख है -(गुजराती अनु० पृ. २६२ -२६३) और इन चार दशाओं-बन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दर्घदशा, संक्षेपित दशा (पृ०२५६) का भी उल्लेख हैं किन्तु टीकाकार का कहना है कि इनके विषय में हम कुछ नहीं जानते । तित्थोगाली में जहाँ श्रुतविच्छेद की चर्चा है वहाँ बारह अंग के उपरांत निम्न श्रुत का उल्लेख है-कल्प व्यवहार, दशा, निशीथ, उत्तर!ध्ययन, दशवैकालिक, अनुयोगद्वार और नंदी-इससे पता चलता है कि उसके काल तक इन ग्रंथों का आगम में समावेश होगा। इसमें चन्द्र आदि चार प्रज्ञप्तिओं का' उल्लेख नहीं यह सूचित करता है कि अब तक उनका आगमकी कोटि में समावेश नहीं था। अतएव स्थानांग-समवायांग में उनका उल्लेख बो मिलता है वह कालक्रम से आगमकोटि में उन्हें स्थान मिला यह सुचित करता है। इसके बाद होनेवाली आगमों की सूची के विषय में मैंने अन्यत्र चर्चा की है उसे यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं है । आगमकी संख्या क्रमशः बढी है इतना दिखाना ही यहाँ अभिप्रेत है। आगमों के वर्गीकरण के विषय में भी मैंने अन्यत्र चर्चा की है अतएव उसे भी यहाँ दोहराना आवश्यक नहीं । __आगमों में चर्चित विषयों का क्रमिक विकास . इसमें तो संदेह को कोई स्थान नहीं है कि आगमों में प्राचारांग का प्रथम श्रतस्कंध सबसे प्राचीन स्तर है । उसके बाद क्रम में आता हे सूत्रकृत का प्रथम श्रुतस्कंध । और वह भी आचागंग में प्रतिपादित विषयों का मानों विवरण हो ऐसा है। अतएव ये दोनों हमें भ. महावीर के मौलिक उपदेश की झलक देने में समर्थ हैं। उन दोनों में श्रमणधर्म को ": १ चन्द्र, सूर्य और जंबूदीर इन तीन प्रतिओं का समावेश दिगंवर मतसे दृष्टिवाद में है। धवला पु.२, प्रस्तावना पृ० ४३ । २ जैन-साहित्य का बृहद् इतिहास भाग १, प्रस्तावना पृ०३४ से । ३ वही पृ० ३३ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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