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________________ माथुरी वाचना श्वेताम्बरों द्वारा मान्य अंग ग्रन्थ जो विद्यमान हैं वे माथुरीवाचनानुसारी हैं' और उसमें जो परिवर्तन-परिवर्धन-संशोधन किया गया है-उसके विषयमें आगे चर्चा की जायेगी। माथुरोवाचना के अलावा नागार्जुनीय वाचना भी वलभी में हुई ऐसा निर्देश सर्वप्रथम कहावली में ही मिलता है। कहावली भद्रेश्वरकी रचना है और वह आ. हरिभद्र के बाद की रचना है। अतएव उस निर्देशका कारण यही हो सकता है कि कुछ चूर्णिओंमें नागर्जुनीय के नाम से पाठांतर मिलते हैं और पन्नवणा जैसे आबाह्य ग्रन्थमें भी पाठांतर का निर्देश है अतएव अनुमान किया गया कि नागार्जुन ने भी वाचना की होगी। यह सत्य है या केवल कल्पना इस विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु इतना तो निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि मौजुदा आगम (अंग-आगम) माथुरी वा चनानुसारी हैं। और उसमें तथ्य भी है । अन्यथा पाठांतरों में स्कंदिलके पाठांतरोंका भी निर्देश मिलता। अंग और अन्य ग्रन्थों की ऐसी व्यक्तिगत कई वाचनाएँ हुई होंगी यह भी तथ्य है अन्यथा भगवती आराधना की अपराजितकृत टीकामें आचारांगादि के जो पाठ उद्धृत किये हैं वे सभी उसी रूपमें विद्यमान आचारांग आदि में मिल जाते । किन्तु कुछ मिलते नहीं हैं-यह तथ्य हैं । और यह भी तथ्य है कि आचारांगादि प्राचीन आगमों की चूर्णिमें जो पाठ स्वीकृत हैं उससे भिन्न पाठ टीकामें कई स्थानों में मिलता हैं । यह सिद्ध करता है कि अंग आगमों की वाचनाके एकाधिक प्रयत्न पाटलिपुत्रकी वाचनाके बाद हुए हैं। इतना ही नहीं प्रश्नध्याकरण जैसे ग्रन्थ का तो संपूर्ण रूपसे परिवर्तन हो गया है और अंगों की कथाओं में भेद भी हो गया है। अतएव इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि इन वाचनाओं द्वारा उपलब्ध मौलिक अंग आगम की सुरक्षाका प्रयत्न अवश्य हुआ है । साथ ही इतना भी मानना पडेगा कि सांप्रदायिक आवश्यकतानुसार उसमें परिवर्तन, परिवर्धन और संशाधन भी किया गया है। आ. देवर्धिका पुस्तकलेखन आ. देवर्धिने आगमों को पुस्तकारूढ किया यह परंपरा तो हमारे समक्ष है किन्तु किन किन ग्रन्थोंको पुस्तकारूढ किया इसका कोई उल्लेख मिलता नहीं । नंदी में जो श्रुतकी सूची दी गई है वह हमारे समक्ष है किन्तु नंदो देर्षिकी रचना नहीं है। ऐसी स्थितिमें नदी की सूचीगत सभी ग्रन्थ देवर्धि द्वारा पुस्तकारूढ हुए थे यह नहीं कहा जा सकता । अतएव इसका निर्णय कठिन है कि वे कौन ग्रन्थ थे जो पुस्तकारूढ हुए। सामान्यतः इतना कहा जा सकता है कि अंगग्रन्थों को तो पुस्तकारूढ किया ही होगा । अंगबाह्य में जितने ग्रन्थ पूर्ववर्ती होंगे वे तो पूर्वकालसे पुस्त हारूढ होंगे ही । किन्नु विद्यमान आगमसूर्च में ऐसे कई ग्रन्थ हैं जो देवर्धिके बादकी रचना है, जैसे कि कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थ । अतएव यह मानना पडता है कि श्वेताम्बर परंपरामें आगम कोटिमें समय समय पर नये नये ग्रन्थ समिलित किये जाते रहे हैं। यही प्रक्रिया दिगंबर परंपरा में भी देखी जाती है । अन्यथा दिगंबर परंपरामें मूलाचार से लेकर विद्यानन्द तक के ग्रन्थ आगम के प्रामाण्य को कैसे प्राप्त होते ? पिछले वर्षों में षट्खडागम १ नंदी गा० ३२ (स्थविरावली)। २ विशेष के लिए देखे वीरनि० पृ० ११४ ।। ३ जै. सा. इ. पूर्वपीठिका पृ० ५२५ । ४ देखें स्थानांग-समवायांग (गुजराती) पृ. २४५ टि० १, पृ० २५६ टि०१, २-१०, पृ० २५७ के टिप्पण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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