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________________ जैन आगम बाहुने भी दशा-कल्प-व्यवहार की रचना की थी ऐ तो श्वेताम्बर मान्यता है । किन्तु इन ग्रन्थों की वाचनाका कोई प्रश्न नहीं था । वाचना केवल अंगग्रन्थोंकी आवश्यक समझी गई थी। क्योंकि आगम या श्रुत अंगग्रन्थों तक सीमित था । आगे चलकर श्रुतविस्तार हुआअन्न आचार्यकृत ग्रन्थों को भी क्रमशः आगमकोटिमें लाया गया यह कहकर कि वे भी गणधर कृत है। माथुरी वाचना माथुरी वावा भी पाटलिपुत्र को वाचना की तरह केवल अंगसूत्रोंके लिए ही हुई थी। नंदी चूर्णि में अंग के लिए कालिक शब्द का प्रयोग है-पृ. ४६ । उपमें भी अंगबाह्य की वाचना या संकलनाका कोई उल्लेख नहीं है। माथुरो वाचना पाटलिपुत्रमें न होकर मथुरा में हुई यह सिद्ध करता है कि उस कालमें पाटलिपुत्र के स्थानमें मथुग जैनों का विशिष्ट केन्द्र बन गया था । अर्थात् बिहार से हटकर अब जैनों का प्रभाव उत्तर प्रदेश में बढ गया था । यहीं से कुछ श्रमण दक्षिणकी ओर गये थे । जिसकी सूचना दक्षिणमें प्रसिद्ध माथुर संघ के अस्तित्व से मिलती है। यह भी एक कारण है कि दक्षिण के दिगंबरों के ग्रन्थ महाराष्ट्री प्राकृतमें न होकर भी शौरसेनी भाषाके प्रभाव से मुक्त नहीं है । माथुरी वाचनाके प्रधान थे स्कंदिलाचाये, वे परंपराके अनुसार वीरनि० ८२७ से ८४० तक युग प्रधान पद पर थे। इस काल तक अंगों के अलावा कई अंग बाह्य ग्रन्थ बन चुके थे किन्तु इसमें उनकी वाचना या संकलनाका प्रश्न नहीं था । इस अंगकी वाचना की आवश्यकता के विषय में दो मत हैं। एक यह कि कालिक श्रुत-अंग आगम अव्यवस्थित हो गया था। यह मत संभवतः दिगंबर परंपगके अनुकूल है। दूसरा यह कि उस काल में अनुयोगधरों का अभाव हो गया था, केवल स्कंदिल ही एक मात्र बचे थे । स्पष्ट है कि दूसरे मतके उत्थान का प्रयोजन ही यह दीखता है कि जो कुछ उस वाचनामें किया गया वह नया नहीं किया गया, जो पुराना चला आ रहा था वही व्यवस्थित किया गया जिससे उसके प्रामाण्य में कोई कमी न हो । वास्तविक रूप से देखा जाय तो माथुरी वाचनामें ही परिवर्तन-परिवर्धन-संशोधन करके अंग सूत्रों को व्यवस्थित किया गया होगा। और इसी कारणसे उसके प्रामाण्यमें लोग शंका करने लगे होंगे। अतएव उसके निराकरण के लिए ही यह मत उत्थित हुआ कि सूत्र में कुछ नया नहीं किया गया-सूत्र नष्ट ही नहीं हुए थे या अव्यवस्ति नहीं हुए थे । केवल उनके जानकारों और व्याख्याकारों की कमी हो गई थी। इस प्रकार नये निर्माण को प्रामाण्य देना उस दूसरे मत का प्रयोजन सिद्ध होता है । यदि पाटलिपुत्रको वाचना ही व्यवस्थित की गई होती तो उसके प्रामाण्यके विषयमें कुछ प्रश्न ही नहीं उठता ओर न इस दूसरे मत के उत्थान की आवश्यकता ही होती । १ दशवैकालिक और कल्प-व्यवहार को तो दिगंबरों ने भी अपनी अंगबाह्यसूची में स्थान दिया है -धवला पु.१, पू० ९६ । जयधवला पृ० २५ । २ आगम संख्या किस प्रकार क्रमशः बढी इसके लिए देखें-आगम युग का जैन दर्शन, पृ०२७ । ३ देखें नंदी कारिका ३२ और उसकी चूर्णि । ४ नंदी चूणि पृ० ९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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