________________
तुम छ खण्ड पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती बनोगें । उसे के बाद अपने पुत्र को राज्यगद्दी पर स्थापित कर दीक्षा ग्रहण कर मृत्यु के बाद वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान में देव बनोगे । वहां से चवकर भरतखण्ड में आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ के नाम से जन्म ग्रहण करोगे। आचार्य के मुख से ये वचन सुन कर वह बड़ा प्रसन्न हुआ । गुरु को वन्दन कर अपनी विशाल सेना के साथ अपने नगर पहुँचा । नगर जनों ने उत्सव पूर्वक राजा अजितसेन का प्रवेश करवाया। राजा अपने माता पिता से मिला । पुत्र को पा कर माता पिता तथा नगर जन अत्यन्त प्रसन्न हुए । (तृतीय पर्व गाथा - १०४२)
(चतुर्थपर्व)
राजा अजितसेन अपने पराक्रम से छः खण्ड पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती बना । उसने नौ निधि चौदह रत्न आदि समस्त चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त की । उसे अजितंजय नामक पराक्रमी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । एक बार स्वयंप्रभ नाम के तीर्थंकर भगवान नगर में पधारे। समवसरण की रचना हुई । तीर्थंकर का आगमन सुन अजितसेन चक्रवर्ती उनके समीप पहुंचा । वंदन कर उनके समवसरण में बैठ गया। देव, मनुष्य और तिर्यंच की विशाल उपस्थिति में भगवान ने धर्मोपदेश दिया उपदेश समाप्ति के बाद चक्रवर्ती अजितसेन ने प्रश्न किया - भगवन् ! जीव अत्यन्त दुःख के कारणभूत क्लिष्ट कर्म का कैसे उपार्जन करता ? भगवान् ने कहा राजन् ! मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, अशुभयोग और कषाय इन पांच कारणों से जीव दुःख के कारण भूत अशुभ कर्मों का उपार्जन करता है। भगवान ने पांचों कारणों का विशद रूप से वर्णन करते हुए प्रत्येक कारण पर एक एक उदाहरण दिये । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का स्वरूप समझाते हुए भगवान ने सोमा की कथा कही ।
सोमाकथा
-
११
श्रीपुर नामका सुन्दर नगर था । वहाँ नन्दन श्रेष्ठी की पत्नी जिनमती की कूंख से उत्पन्न श्रीमती नामकी सुन्दर कन्या थी । उसकी ब्राह्मण पुरोहित की पुत्री सोमा से अत्यन्त मैत्री थी। दोनों में प्रगाढ स्नेह था । श्रीमती जिनधर्म को मानने वाली थी और सोमा ब्राह्मण धर्म में विश्वास रखती थी । श्रीमती के निरन्तर सहवास से सोमा ने भी जैन धर्म स्वीकार किया। सोमा की धर्मश्रद्धा को विशेष दृढ करने के लिए श्रीमती ने झुंटण वणिक की तथा गोब्बर वणिक की कथा कही । (गाथा. - ११६७ - १२१२)
इन कथाओं के श्रवण से सोमा की धर्मभावना अत्यन्त दृष्ठ हो गई। एक दिन अवसर पाकर श्रीमती तथा सोमा प्रवर्तिनी शीललक्ष्मी नाम की साध्वी के पास पहुंची । साध्वी ने सोमा को जैन धर्म का तत्त्वज्ञान समझाया। साथ ही श्रावक के पंचाणुव्रत एवं रात्री भोजन त्याग के उपदेश के साथ ही पंचाणुव्रत एवं रात्री भोजन पर एक एक कथा कही । साध्वी के उपदेश से उसने श्राविका के बारहव्रतों को स्वीकार किया ।
Jain Education International
(गा. - १५१८) सोमा ने शुद्ध भाव से श्राविकाचार का पालन किया और अन्त में स्वर्ग में गई । अजितंजय राजा सोमा के कथानक से बड़ा प्रभावित हुआ। तीर्थंकर भगवान ने पुनः कहा राजन् ! तुम्हारा पुत्र श्रीधर्म के भव में निरतिचार संयम की आराधना कर सौधर्म देवलोक में श्रीधर नामक महर्द्धिक देव बना । वहां से देवभव का आयुष्य पूर्णकर अजितसेन चक्रवर्ती ने तुम्हारे घर पुत्र रूपमें जन्म लिया । तीर्थंकर भगवान का उपदेश सुन अरिंजय राजा ने अपने चक्रवर्ती पुत्र को राज्य सौपकर तीर्थंकर भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की और शुद्ध संयम की आराधना कर अन्त में उत्तमगति प्राप्त की । (गा. - १५५०)
For Private & Personal Use Only
1
www.jainelibrary.org