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________________ (पांचवां पर्व पृ.५९) पिता अरिंजय राजा के दीक्षित होने पर अजितसेन पिता के विरह में अत्यन्त व्याकुल रहने लगा। मंत्री मण्डल के समझाने पर भी उसका शोक कम नहीं हुआ । वसन्त का समय आया । उद्यानपाल ने वसन्तश्री का वर्णन करते हुए राजा को उद्यान में पधारने का निमंत्रण दिया। राजा अजितसेन अपनी प्रिय रानी के साथ उद्यान में पहुँचा । वहां वनश्री को देखकर राजा बहुत प्रभावित हुआ । वहाँ नाटक मण्डली ने नाटक प्रारंभ किया। राजा अपने परिवार के साथ नाटक देखने लगा । नाटक अत्यन्त प्रभावशालि था । राजा नाटक को देखकर नर्तक नर्तकियों पर बड़ा प्रसन्न हुआ। उन्हें इच्छित धन प्रदान कर विदा किया । नाटक समाप्ति के बाद राजा अपनी रानियों के साथ उद्यान में घूमने लगा। घूमते घूमते कोलाहल करते हुए स्त्रियों के समूह पर उसकी दृष्टि पडी । वह वहां पहुंचा । उसने देखा - एक सुन्दर युवति मूछित अवस्था में जमीन पर पड़ी हुई थी थी। कछ स्त्रियां मच्छित यवति की मर्छा को दर करने के लिए विविध प्रयत्न कर रही थी। शीतलजल सिंचन से उसकी मूर्छा दूर हुई । राजा ने पूछा - यह सुन्दर युवती कौन है ? और यहां कैसे आई ? एक प्रहरी ने कहा - राजन् ! यह सिंहराजा की पुत्री है । इसका नाम -हीमती देवी है । यह आपके गुणों से आकर्षित हो यहां आप से विवाह करने की इच्छा से आई है । इसका मन वैराग्य रंग से रंजित है । फिर भी आपकी आज्ञा में रहने की इसकी उत्कट इच्छा है। यह चर्चा हो रही थी कि इतने में एक शीला पर विराजमान प्रखर तेजस्वी मुनि को -हीमती देवी ने देखा । वह उनके पास गई और वन्दन कर उनके समीप बैठ गई । मुनि ने उपदेश दिया। -हीमतीदेवी पहले से ही वैराग्य रंग से रंजित थी । मुनि ने उपदेश में कहा - भरतराजा चक्रवर्ती होते हुए भी अनासक्त भाव से रहने के कारण उन्होंने गृहस्थ अवस्था में ही केवलज्ञान प्राप्त किया । -हीमती देवी ने कहा - भगवन् ! मैं केवली भरत चक्रवर्ती का चरित्र सुनना चाहती हूं । मुनि ने कहा - सुनो । (गा. १७९१-२२५९) भरत चक्रवर्ती की कथा कहने बाद मुनिवर ने कहा - देवी ! तुम पूर्व जन्म में एक उच्च कोटि के चारित्रवान मुनि थी । एक व्यभिचारी ब्राह्मण पुत्र की रक्षा के लिए तुमने माया युक्त झूठ बोला । संयमी जीवन में झूठ बोलने के कारण तुमने स्त्री वेद का बन्धन किया । उत्कृष्ट चारित्र के कारण तुम मर कर सत्रह सागरोपम आयुवाले महाशुक्र देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुई । वहां का आयुष्य पूर्ण कर तुमने -हीमती देवी के रूप में जन्म लिया । पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण तुम्हारा मन सदैव वैराग्यमय रहता है । मुनि से पूर्व जन्म का वृतान्त सुन इसे मूर्छा आगई । इसके स्वस्थ होने पर हम इसे आपके पास ले आये हैं । राजा ने -हीमती का वृत्तान्त सुना और उसके साथ विवाह कर उसे अपनी पट्टरानी बनाया। पूर्व अभ्यास के -हीमति देवी राजा को सदैव वैराग्य की ही बाते सुनाती हुई संसार की असारता समझाती थी । पिपासा से व्याकुल अंगारमर्दक की कथा सुनाकर उसने राजा की भोगासक्ति कम की (गा. २२६० - २३६९) इस प्रकार निरन्तर धर्मोपदेश सुनाती हुई एक दिन -हीमती देवी ने गुणप्रभ सूरि के बीज नामक उद्यान में पधारने का वृतान्त सुना । अजितसेन चक्रवर्ती और -हीमति देवी आचार्य के समीप उद्यान में पहुंची । आचार्यश्री ने अपनी गम्भीर वाणी में संसार की असारता और जिन धर्म का सार समझाया । आचार्य के उपदेश से राजा बहुत प्रभावित हुआ और विनय पूर्वक बोला - भगवन् ! मैं अपने पुत्र को राज्यगद्दी पर स्थापित कर आपके पास मुनि दीक्षा लेना चाहता हूँ । मुनि ने राजा की बात का अनुमोदन किया और शुभकार्य में विलम्ब न करने को कहा । राजा घर आया और शुभ मुहूर्त में अपने पुत्र जितशत्रु को राज्यगद्दी पर स्थापित कर तीन हजार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001587
Book TitleChandappahasami Chariyam
Original Sutra AuthorJasadevsuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages246
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size17 MB
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