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________________ सिरिजिणेसरसूरिविरइओ कस्स वि गुणवुढि च्चिय उच्चपयारोहणेसु निगडाई । अइगारवेण पिच्छाण नीयनहगामिणो सिहिणो ॥७८९॥ अहियमहियं कलाओ संगहिय सिरीए तह कहं रविओ (?णो)। अप्पं हरिणंकेणं मित्तस्स वि जह न संघडइ ॥७९०॥ ऊहइ सो को वि कया वि भुवणपल्हत्थणापरो परणो (?) । महिहरसिरेसु खेलंति जेण रच्छा इव न्ह(?त)णाइं ॥७९१॥ तं किं पि उवलखंडं कया वि परमेसरी जणइ वसुहा । नरवइचूलाकुसुमे हि जस्स किर दिज्जए अग्धो ॥७९२॥ दीवेसु तिमिरसंघाइरी इ फु(पप्फुरइ का वि सा कंती । तह वि हु पहाववंझेसु उवलखंडेसु मणिसदो ॥७९३॥ तस्स पईवस्स सयं कहं समत्था समत्थिमं कहिउं ? । देवे गयम्मि सूरे जेण न सीयंति ववहारा ॥७९४॥ तं धवलतं सो को वि भुवणसंतावलोवगो महिमा । पसुसंगणेक्केणं ससिणो सव्वं पि सकलंकं ॥७९५॥ अइवल्लहेसु कोवो वियंभए, अहव अइविरुद्धेसु । अन्ने उण अवराहे वि होति जोग्गा अवेक्खाए ॥७९६॥ अइगरुयमहावंसुब्भवाण संघडिय[१ विविह] विहवाण । तुटुंति गुणा अइधट्ठिमाए चावाण व नराणं ॥७९७॥ सच्छाण सुचित्ताणं मुत्ताणं सुत्तिसंपुडठियाणं । गुणसंगममलहंताण निप्फलो जम्मसंरंभो ॥७९८॥ ५८. अथ शान्तरसप्रक्रमः न हु एत्तिएण बो(?हो)ही मलिणाण समुन्नईइ घणसमओ । कायव्वा अज्ज वि रायहंसमुन्ना सरुच्छंगा ॥७९९॥ अब्भत्थिया वि वंका गुणरहिया निमिसमेत्तरंगिल्ला । इन्हि कलिजुगसमए सुरिंदधणुसच्छहा लोया ॥८००॥ संतगुणविप्पणासे असंतदोसुब्भवे वि जं दुक्ख । तं सोसेइ समुई, किं पुण हिययं मणुस्साणं ? ॥८०१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001584
Book TitleGaharayankosa
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
AuthorAmrutlal Bhojak, Nagin J Shah, Dalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1975
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Sermon
File Size6 MB
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