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सिरिजिणेसरसूरिविरइओ
५६. अथ धवलप्रक्रमः अप्फोडियगुरुयपयप्पहारवित्थिण्णजणियकिणसोहो । धवलस्स महाभरकड्ढणाई खंधो च्चिय कहेइ ॥७६३॥ डिभाण न सो कुप्पइ, थेरे परिहरइ, खमइ कसराण । धवलाण धवलवसहो न सहइ तणुयं पि फुकारं ॥७६४॥ धवलस्स नेय भारो दुक्खइ हिययम्मि दुक्खए अन्नं । अणजाणएण पहुणा कसरेण समं पि जं जुत्तो ॥७६५॥ चिक्कणचिक्खल्लचहुदृचक्कथक्के भरम्मि जाणिहसि । अविसेसन्नू गहवइ ! परम्मुहो जं सि धवलाण ॥७६६॥
५७ अथ मुत्कलप्रक्रमः अमरसिरोवरि ठाणं लद्धं रे ! धयवडा ! हि अब्भहियं । नियवंसस्स वि छाया न कया ता कीस फरहरसि ? ॥७६७॥ पाऊण पाणियं सरवराण पिट्टि न दिति सिहिडिंभा । होही जाण कलावो पयइ च्चिय साहए ताण ॥७६८॥ जइ लब्भइ अवयारिं कह व उलग्गेण आवयापडियं । उवयारमारियं तह करिज्ज जह दुक्करं जियइ ॥७६९॥ दिव्ववसा पई जंबुय ! पत्ता जइ नाम केसरिस्स गुहा । ता तस्स करिवियारं परकम .... .... .... ॥७७०॥
॥७७१॥
॥७७२॥
.... ॥७७३॥ नवणलिणमुणालुल्लोलमालियं हंस! माणसं मोत्तुं । लज्जाए कह न मओ सेवंतो गामवाहुलिअं ? ॥७७४॥ १. इतोऽनन्तरं गलितपाठप्रमाणाः प्रतावपि रिक्ताक्षुरपङ्क्तयो वर्तन्ते ॥
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