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सिरिजिणेसरसूरिविरइओ
४४. अथ प्राट्प्रक्रमः अन्नेहिं वि कूवजलेहिं न हु न जीवंति मामि ! वल्लीओ । जलहरजलसित्ताणं तु का वि अवरा मुहच्छाया ॥६३६॥
.... .... .... .... .... .... .... .... .... ॥६३७॥ .... .... .... .... .... .... .... .... .... ।
..... .... ॥६३८॥ ..... .... .... .... .... .... .... .... .... । सुरगिरिकणयपरिक्खा निहसणरेहं व विज्जुलयं ॥६३९॥ गुरुघणपाउसनवसिरिनिक्खित्तपयाई पंकयवणाई । सहसा सरसलिलोयरमज्झपरूढाई जायाइं ॥६४०॥ रयणियरा इव उदयं पत्ता मित्तं पराहवंता वि । मइला वि घणा लोयाण वल्लहा होति वरिसंता ॥६४१॥ खज्जोयलोयणुम्मीलणेण धणसमयरयणितिमिरोहो । अन्नेसइ व्व 'ससि-सूर-तारया कत्थ वटंति ?' ॥६४२॥ सुव्वंतविभीसणमेघघोरसदाण विज्जुमालाण । पाउसदिणाण पहिया बीहंते रक्खसाणं व ॥६४३॥ घटुं सहावकं अणेयरायं पि उव्वसणसीलं । खलमहिलाहिययं पिव वियलइ चावं सुरिंदस्स ॥६४४॥ कसणा घणाण माला सुरिदचावो बलाय-रिंछोली । पियविरहजोव्वणभरो पंचग्गी को जणो सहइ ? ॥६४५॥ लहिऊण जलं थोवं पि जलहरा दुज्जण व्व गज्जंता । निहणंति खणं मलिणा दिणे वि मित्तस्स वि पयावं ॥६४६॥ गिरिसिहरसंठिएणं डज्झइ पहियस्स नीलकंठेण । निउरंबदूरपसरियसरेण नवपाउसे हिययं ॥६४७॥
१. अत आरभ्य सार्द्धद्वयगाथाप्रमाणा रिक्ताक्षरपङ्क्तयः प्रतौ ॥ २. महिलियाहियंपिव प्रतिपाठः ॥ ३. प्रस्तुतार्थनिवेदकमत्र प्रतौ टिप्पणरूपेणेदं पद्यं लिखितम्-"रे वाहा ! मग्गेण बहु, मा उम्मूलि पलास । कल्ले जलहर थक्किसइ किसी पराई आस ॥१॥" ॥
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