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गाहारयणकोसो मयणग्गिणा ण डज्झसि मह हिययगओ वि जं परितवंतो । दे देसु सुहय ! मज्झ वि तं जलणत्थंभणि विजं ॥४६६।। जं जं ते न सुहायइ तं तं न करेमि जं ममायत्तं । अहयं चिय जं न सुहामि सुहय ! तं कि ममायत्तं ? ॥४६७॥ दक्खिण्णेण विरत्तो सुहय ! सुहावेसि अम्ह हिययाई । णिक्कइयवाणुरत्तो सि जाण का णिव्वुई ताण ? ॥४६८॥ सच्चं धवलो सि तुमं तहा वि रंजेसि अम्ह हिययाई । रायभरिए वि हियए नाह ! निहित्तो न रत्तो सि ॥४६९।। दीससि पियाई जंपसि सब्भावो सुहय ! इत्तिओ चेव । फालेऊणं हिययं साहसु को दावए कस्स ? ॥४७०। अवराहसहस्साई वहिमो हियए तुमम्मि अद्दिष्टे । समुहमिलियम्मि पत्तिय एक्कं पि हु नेय संभरिमो ॥४७१॥ जइ भुज्जाएइ मही, लेहणि वणराइ, उयहि मसिठाणं । लिहइ पुरंदरनाहो ता तुम्ह गुणा लिहिज्जति ॥४७२॥ अवरज्झसु वीसत्थं, सव्वं ते सुहय ! विसहिमो अम्हे । गुणनिब्भरम्मि हियए पत्तिय दोसा न मायति ॥४७३॥
३३. अथ मानिनीप्रत्युत्तरप्रक्रमः वससि जहिं चिय हियए अणुदियहं नेसि तं चिय खयंति । नवरं सलोणया सुहय ! तुज्झ अम्हेसु निव्वडिया ॥४७४॥ हिययाइं(?हिं)तो पसरंति जाइं अण्णाई ताई वयणाई ।
ओ ! विरम किं इमेहिं अहरंतरमेत्तभणियेहिं ? ॥४७५॥ तंबोलरायअणुरंगि(जि)याई नयणाई हुंतु, को दोसो ? । अहरे कज्जलरेहा रे सुहय ! असंभवं दुक्ख ॥४७६॥ तइया मह गंडस्थलनिहियं दिहिं न नेसि अन्नत्तो । इण्डिं स च्चेय अहं, ते य कवोला, न सा दिट्ठी ॥४७७॥ हिययट्ठिया वि देइया वाहित्ता जं न देइ उल्लावं । तं नृण सुहय ! तुह दंसणेण कोवं समुव्वहइ ॥४७८॥ १. दईया बाहित्ता प्रतौ ।
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