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गाहारयणकोसो उन्नयसिहो वि दीवो न हणइ हिट्ठियं तिमिरनियरं । । अहवाभिमाणमुक्कं पहुणो पालेति रिउवग्गं ॥११९॥ नीया वि समत्थेहि गहिया उच्चं लहंति संठाणं । धुलिकणा पुहवीए चरंति गयणम्मि वाएणं ॥१२०॥ हिट्ठियजडनियरं तह य सुपत्ताइं उत्तमंगम्मि । जह धरइ तरू तह जइ पहू वि ता किं न पज्जत्तं ? ॥१२१॥
१४. अथ लक्ष्मीप्रक्रमः न मि(वि)णा जं सहइ गुणो वि, सहइ दोसो वि जीए परियरिओ। कम्मणमेगं भुयणस्स सरह तं भयवई लच्छि ॥१२२॥ गुणगरुयाण वि धणवज्जियाण न हवंति चिंतिया अत्था ॥ लक्खेण वि दीवाणं न दिणं दिणनाहविरहम्मि ॥१२३॥ लच्छी-सरस्सईणं लच्छी गरुई, सरस्सई लहुई । इहरा कहमीसरमणुसरंति संपन्नविज्जा वि ॥१२४॥ लच्छीए गुणा नियमेण होति, न गुणेहिं हवइ पुण लच्छी। विज्जओ खलु समेहा हवंति, मेहा न सह विज्जू ॥१२५॥ अइसीयलकरपसरो जाओ संपुण्णमंडलो राया । इय चिंतिऊण लच्छी सव्वंगं तम्मि निवसेइ ॥१२६॥ लच्छीलयाइ मूलं गुण-सत्तिपयं परिट्टियं लोए । जेण अहोगमणं चेव ताण परिवड्ढणे तीए ॥१२७॥
१५. अथ दानप्रक्रमः दिताण दाणमेव हि संक(? स)इ, न य परिभवं कुणइ को उ । दाणेण विरहिआणं न ढलइ लोगो करीणं पि ॥१२८॥ कोडि दिता वि नमंति, मग्गणत्थं धरंति जे जीयं । ताण धगृण व पुरिसाण कह णु मा होउ टंकारो ॥१२९॥ सो वंसगुणो च्चिय एस को वि चावाण फुरियसाराण । जं गुणमुक्काण वि मग्गणाण लक्खं समप्पंति ॥१३०॥
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