________________
इम सुणी ऋषिदत्ता भणइ सुण उ स्वामीजी, अह असंभम वात, दुख पांमीजी; इंद्रजाल कोइ मे खरं, सुणउ ; कइ ओ सुपन विलास
दुख ०
hur
दख०
थाग भाग नहीं वातनउं, जिम सायर कांतार, धर्मवंत हुँ धुर लगई, जनम लगई दयाल,
स०
दुख०
दुख ०
लोहीथी ऊकांटा चडई, नासु मांसनी गंधि; पाली दोठ इ दूरथी डरूं, वननी मृगली जेम,
सु०
दुख ०
सु० दुख०
त्रणामात्र दूहव्यउं नथी, मई तु आंणइं भवि कोइ; हु कुहनई नहीं पाडूई, मनि वचनि अनइं तनि,
सु०
दुख०
सू०
दुख०
विलसित को अरितणउं, पूरव करम विपाक, जउ प्रतीति तुम्हनई नही, तउ कहउ ते करुं दिव्य,
सू०
दुख०
दुख ०
अथवा अपराध णि तणउ , मस्तक छेदउ हाथि; तुम्हनइं मुखि स्यउं दाख वउं, जउ चडघउं करमि कलंक,
सु० दुख ०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org