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________________ ऋषिदत्ता रास श्री जयवंतसूरि रचित (रचना स. १६४३) . ढाल १ दूहा उदय अधिक दिन दिन हुवइ, जेहनइं लीधइ नांमि ; ते पांचे परमेष्टनइ, हुं नितु करुं प्रणाम. सासनि सोहकरी सदा, श्री विद्या सुभरूप; ते मनि समरूं जेहनइं, सेवइ सुर नर भूप. मीठाई मुझ वांणीइं, तई दीधी छइ चंग; वली विशेष वीनवऊ, द्यइ रसरंग अभंग. ऋषिदत्ता निर्मल थई, ते निज सत्व प्रमाणि; तसु आरव्यान वखांणवा, द्यइ मुझ निर्मल वांणि. कविता महिमा विस्तरइ, फलीइ वक्ता आस; श्रोता अतिरंजइ जिणइं. सेा द्यइ वचन विलास. विविधि परई कवि केलवण, निज निज मति अणुसारि; तुझ पय कमल प्रसादथी, जगि वांणी विस्तारि. पूर्वइं छइ सुकवई करू, एहनां चरित प्रसिद्ध ; तउहइ रसिकजन आग्रहइ, ए मई उद्यम किद्ध. केवल लही मुगतई गई, कीध कलंकह छेक ; ते ऋषिदत्ता सुच्चरित, सुणयो सहु सुविवेक. ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001581
Book TitleRushidattras
Original Sutra AuthorJayvantasuri
AuthorNipuna A Dalal, Dalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size11 MB
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