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सुरनर करी प्रसंस, कुशमनी वृष्टि भई; ऊतारो कष्ट-समुद्र, भावठि सर्व गई. रमझमि कनक मंजीर, पूरण चंद्रमुखी; पहिरणि कोमल चीर, नव नवी भांति लिखी. कंचुक कुचि सोहंत, मोतिन माल भजी; रवि ससि कुंडल मेल, स (श? ) वि सिणगार सजी. अधर सुरंग तंबोल, हसती फूल खरइ; हीरा दीपति दंत, बोल ति अमृत झरइ. क्षामोदरि गजगति, वेणी भुअंग जिसी; माननि मोहणवेलि, अणी नयणि हसी. तिणि खि णि मागधथोक, जय जय सबद भणइ ; करइ प्रसंसा लोक, ऊलटि चिति घणइ जव दीठ उ तसु रूप, रुकमिणि दासि गिणी; घटतउ अहस्युं प्रेम, जन कहइ कुमर गिणी.
ढाल ३७
(राग : देशाख-अकवीसानो ) अहवउ वितिकर रे, निसुणी काबेरीधणी, मनमांहि रे पांम्यउ आनंद अतिगुणी ; आरोपी रे कुमरस्यउं, ऋषिदत्ता गजइ; अति उच्छवि रे, निज मंदिरि आव्या भजइ.
त्रूटक भजय नववय नवलनेहा, चंदस्युं जिम रोहिणी, अपराध जांणी कठिन वांणी, राइं तिरथी रिखि मिणी; जे कूडकपट-करंड रंडा, योगिनी सुलसा खरी, तसु नाशिवास्युं श्रवण छेदी, काढी देशथ की परी.
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