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________________ सत्यशासन-परीक्षा ब्रह्माद्वैतवादी संसारकी उत्पत्ति ब्रह्मसे ही मानते हैं। दूसरे शब्दोंमें उसे वे ब्रह्मका विवर्त कहते हैं। यही बात प्रतिपादित करके उपर्युक्त सूत्रका प्रमाण दिया गया है । [८] सांख्यकारिका और सत्यशासन-परीक्षा ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका सांख्यदर्शनका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। संस्कृत पद्योंमें सांख्य सिद्धान्तोंका समग्र विवेचन करनेवाला अपने ढंगका यह अनूठा ग्रन्थ है। सत्यशासन-परीक्षामें विद्यानन्दिने सांख्यकारिकाकी चार कारिकाएँ सांख्यशासनके प्रसंगमें उद्धत को हैं। प्रकृतिके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए 'सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः' स कथनकी साक्षीमें निम्न कारिका उद्धत की है १. "सत्वं लघु प्रकाशकमिष्टमवष्टम्मकं चलं च रजः । गुरुवरणकमेव तमः साम्यावस्था भवेत्प्रकृतिः ॥"" [ सांख्यका० १३] . इस कारिकामें गुणोंके स्वरूपके विषयमें जो विचार किया गया है उनका भी आगे गद्यमें विवेचन किया गया है। सांख्य संमत सष्टिक्रमका विवेचन करने के प्रसंगमें निम्न कारिका उद्धत है२. "प्रकृतेमहांस्ततोऽहंकारस्तस्मादगणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ।” सांख्यका० २२] इस कारिकाके विवेचन में प्रकृतिके प्रधान और बहधान नाम, महत और अहंकारका स्वरूप, पञ्च तन्मात्रा, पञ्च ज्ञानेन्द्रियां, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, मन तथा पञ्च भूतोंकी सम्यक् व्याख्या की गयी है। सांख्याभिमत पुरुषके स्वरूपका निरूपण करते हुए निम्न कारिका उद्धृत है३. "मूलप्रकृतिरविकृतिमहदाद्याः प्रकृतिविकृतयः पञ्च । षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिन विकृतिः पुरुषः ॥” _ [ सांख्यका० ३] सांख्याभिमत कटस्थनित्यताका निरास करते हए प्रसंगवश सत्कार्यवादका समर्थन करनेवाली निम्न कारिका उद्धृत की है ४. "असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्मवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥” [ सांख्यका० ६] [6] न्यायसूत्र और सत्यशासन-परीक्षा न्यायसूत्र न्याय और वैशेषिक सिद्धान्तोंका विवेचन करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण सूत्र ग्रन्थ है। इसपर वात्स्यायनका न्यायभाष्य तथा उद्योतकरका न्यायवार्तिक महत्त्वकी टीकाएँ हैं। विद्यानन्दिने अपने ग्रन्थोंमें न्यायसूत्रके अनेक सूत्रोंको उद्धत किया है। सत्यशासन-परीक्षामें नैयायिक तथा वैशेषिकशासनोंके प्रसंगमें न्यायसूत्रके चार सूत्र उद्धृत किये गये हैं १. सत्य० सांख्य०६१ २. वही, ६२ ३. वही, ६४ ४. वही, $ १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001567
Book TitleSatyashasana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages164
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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