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सत्यशासन-परीक्षा
"स्त्रीमुद्रां झषकेतनस्य महती सर्वार्थसंपत्करी, ये मोहादवधीरयन्ति कुधियो मिथ्याफलान्वेषिणः । ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं मुण्डीकृता लुम्चिताः केचित्पञ्चशिखीकृताश्च जटिनः कापालिकाश्चापरे । पयोधरभरालसाः स्मरविघूर्णितार्द्धक्षणाः, क्वचित्सलयपञ्चमोच्चरितगीतझङ्कारिणीः । विहाय रमणीरमूरपरमोक्षसौख्यार्थिना
महो जडिमडिण्डिमो विफलभाण्डपाखण्डिनाम् ॥'' इनमें से पहला पद्य भर्तृहरिके शृङ्गारशतकमें पाया जाता है। [घ] निम्न पद्य भी सत्यशासन-परीक्षा तथा यशस्तिलक दोनोंमें पाया जाता है
"तदहजस्तनेहातो रक्षो दृष्टेर्भवस्मृतेः ।
भूतानन्वयनासिद्धः प्रकृतिज्ञ: सनातनः ॥" [3] चार्वाक सिद्धान्तोंको विद्यानन्दिने जिस तरह उपन्यस्त किया है ठीक उसी तरह सोमदेवने भी। निःसंदेह सोमदेवने विद्यनन्दिके ग्रन्थोंका गहन अध्ययन किया होगा अन्यथा भाव, भाषा और अर्थका इतना साम्य सम्भव न था।
[ ] जैनेतर ग्रन्थ[१] छान्दोग्योपनिषद् और सत्यशासन-परीक्षा विद्यानन्दिने छान्दोग्योपनिषदके निम्न लिखित दो वाक्य सत्यशासन-परीक्षामें उद्धत किये है
१. "एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म" [छान्दो०६।११] परमब्रह्माद्वैतशासन-परीक्षाके पूर्वपक्षमें परमब्रह्मकी अद्वैतता सिद्ध करनेके लिए यह वचन प्रमाणत्वेन उपन्यस्त किया गया है।
२. "अशरीरं वा वसन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः।" [छान्दो० ८।१२।१] वैशेषिकशासन-परीक्षामें ईश्वर कर्तृत्वका विचार करने के प्रसंगमें यह वाक्य उद्धृत किया गया है। [२] मैत्र्युपनिषद् और सत्यशासन-परीक्षा सत्यशासन-परीक्षाके परमब्रह्माद्वैत प्रकरणमें मैत्र्युपनिषद्का निम्न वाक्य उद्धत किया गया है
"सर्व वै खल्विदं ब्रह्म' [ मैन्यु० ४।६ ] यद्यपि यह वाक्य अद्वैतकी सिद्धिके लिए ही प्रयुक्त होता है, फिर भी विद्यानन्दिने इसे द्वैतसिद्धिके समर्थन में उद्धत किया है। विद्यानन्दिका तर्क यह है कि 'सर्वम्' अर्थात् संसार तो प्रसिद्ध है; किन्तु 'ब्रह्म' प्रसिद्ध नहीं है। इस तरह प्रसिद्ध और अप्रसिद्धका द्वैत हो जायेगा।
१. सत्य, चार्वाक०६४; यश० उत्त०, पृ० २५२ २. शृङ्गार० श्लो० ७९ ३. 'जीवः' यश० । ४. सत्य०, चार्वाक० ६१८; यश० उत्त० २५७ ५. विशेष विवरण-यश० उ० पृ० २५२-५३, सत्य० चार्वाक०६१-२ ६. सत्य० परमब्रह्म० ६ ५ ७. सत्य० वैशे०६२७ ८. सत्य० परमब्रह्म०२४
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