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प्रस्तावना
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१४. गौण कल्पनासे भी जीव सिद्ध होता है । पुरुष-चित्रको देखकर यह कहना कि 'यह सजीव चित्र है', अथवा किसी क्रोधी लड़केको देखकर कहना 'यह बालक सिंह है' ये दोनों गौण कथन मुख्यरूपसे क्रमशः 'जीव' तथा 'सिंह'के अस्तित्वको सिद्ध करते हैं।
$ १५. 'जीवः' यह अखण्ड पद प्रमाणपदकी तरह मुख्य रूपसे अपने बाह्य अर्थसहित है; क्योंकि वह अखण्ड पद है।' यह अनुमान भी जीवके अस्तित्वको सिद्ध करता है।
१६. इसी तरह अनेक विशिष्ट जन संमत होनेसे तथा आप्तके द्वारा उपदिष्ट होनेसे भी जीव सिद्ध होता है।
१७. चैतन्य स्वरूप जीवके राग आदि तथा जड़ शरीरके बालक, युवा, वृद्ध आदि अलग-अलग धर्म देखे जाते हैं, इसलिए दोनोंको एक नहीं माना जा सकता। यदि जीवको भूतोंका धर्म मानें तो 'उपादान कारणके समान ही कार्य होता है' इस नियमके अनुसार जीवके भी पृथ्वी आदि तत्त्वोंके समान धारण, ईरण, द्रव, उष्णता आदि मूर्त धर्म हो होना चाहिए; अतएव जीव शरीरसे भिन्न ही है।
१८. तत्काल उत्पन्न बालकको स्तन्यपानमें रुचि होना, मृत व्यक्तियोंका कभी यक्ष, राक्षस आदि योनिमें उत्पन्न होनेका स्वयं कथन करना तथा किसी-किसी-द्वारा पूर्वभवका स्मरण किया जाना, इन तीनों बातोंसे परलोकका भी सद्भाव सिद्ध होता है।
१९. जन्म आदि कारण समान होनेपर भी सुख, दुःख आदिकी विभिन्नता होना पुण्य-पापके अस्तित्वको सिद्ध करता है।
२०-२२. चार्वाक केवल प्रत्यक्षको प्रमाण मानते हैं। प्रत्यक्ष मात्र से सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करना असम्भव है। प्रत्यक्ष-द्वारा किसी निश्चित स्थान और समयमें सर्वज्ञका निषेध किया जा सकता है सर्वत्र और त्रिकाल में नहीं। किसी स्थान और समय विशेषमें सर्वज्ञका अभाव मानने में चार्वाकोंके अतिरिक्त अन्य लोगोंको भी विवाद नहीं; क्योंकि 'इस समय यहाँ कोई सर्वज्ञ नहीं है' यह कथन अन्यत्र अन्य समयमें सर्वज्ञकी विद्यमानताको स्वयमेव सिद्ध कर देता है। इसी तरह सर्वत्र और त्रिकालमें यदि सर्वज्ञका अभाव कहा जाये तो अभाव सिद्ध करनेवाला सर्व ( त्रिलोक ) और त्रिकालको जाननेके कारण स्वयं सर्वज्ञ हो जायेगा क्योंकि सर्वज्ञकी परिभाषा भी यही है कि जो तीनों लोकों और तीनों कालोंके समस्त पदार्थों को एक साथ हस्तामलकवत् जानता है वही सर्वज्ञ है।
२३. इस तरह केवल प्रत्यक्ष प्रमाणके आधारपर सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता, चार्वाकोंको अनुमान मानना इष्ट हो नहीं; अतएव अनुमानसे अभाव सिद्ध करनेका प्रश्न ही नहीं उठता। इसतरह सर्वज्ञके सद्भावमें कोई बाधक न होनेसे वह निविवाद सिद्ध हो जाता है।
इस प्रकार संक्षेपमें चार्वाकसिद्धान्तोंका खण्डन करके कहा गया है कि उक्त प्रकार चार्वाकशासन दृष्ट और इष्ट विरुद्ध होनेके कारण बद्धिमानोंके द्वारा आदरणीय नहीं हो सकता तथा इसके द्वारा स्याद्वादका विरोध भी नहीं हो सकता ।
[ बौद्धशासन-परीक्षा ] [ पूर्वपक्ष ]
१. रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार ये पाँच ही तत्त्व हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्शके परस्पर असंबद्ध और सजातीय तथा विजातीय परमाणुओंसे भिन्न परमाणु रूप-स्कन्ध हैं। सुख-दुःख आदि वेदना-स्कन्ध हैं। सविकल्पक-निविकल्पक ज्ञान विज्ञान स्कन्ध है। जाति आदिकी कल्पनासे युक्त ज्ञान सविकल्पक और उससे रहित ज्ञान निर्विकल्पक कहलाता है। वृक्षादिके नाम संज्ञा-स्कन्ध हैं । ज्ञान तथा पुण्य-पापकी वासना संस्कार-स्कन्ध हैं। इस प्रकार ये पाँच स्कन्ध हैं।
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